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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन २६ : श्लोक ३२,३४ टि० २०,२१
(१) न्यून नहीं अतिरिक्त नहीं
विपर्यास नहीं
प्रशस्त (२) न्यून नहीं अतिरिक्त नहीं
विपर्यास है
अप्रशस्त (३) न्यून नहीं अतिरिक्त है
विपर्यास नहीं
अप्रशस्त (४) न्यून नहीं अतिरिक्त है
विपर्यास है
अप्रशस्त (५) न्यून है अतिरिक्त नहीं
विपर्यास नहीं
अप्रशस्त (६) न्यून है अतिरिक्त नहीं
विपर्यास है
अप्रशस्त (७) न्यून है अतिरिक्त है
विपर्यास नहीं
अप्रशस्त (८) न्यून है अतिरिक्त है
विपर्यास है
अप्रशस्त २०. (श्लोक ३२)
करने से मेरी यात्रा (संयम-यात्रा या शारीरिक यात्रा) और इस श्लोक में छह कारणों से मुनि को आहार करना प्राशु विहार-चर्या भी चलती रहेगी। चाहिए, ऐसा कहा गया है--
मुनि के आहार करने का यह (ईर्यापथ-शोधन) तीसरा १. क्षुधा की वेदना उत्पन्न होने पर।
उपष्टम्भ है। यदि मनि आहार नहीं करता है तो अन्यान्य २. वैयावृत्य के लिए।
इन्द्रियों के साथ आंखें भी कमजोर हो जाती हैं। इस स्थिति में ३. ईर्या-पथ के शोधन के लिए।
गमन-आगमन करते समय ईर्यापथ का सम्यक् शोधन नहीं ४. संयम-यात्रा के निर्वाह के लिए।
कर पाता। ५. अहिंसा के लिए।
वेदना (क्षुधा) शांति के लिए (वेयण) ६. धर्म-चिन्तन के लिए।
भूख के समान कोई कष्ट नहीं है। भूखा आदमी मिलाइए—ठाणं ६।४१॥
वैयावृत्य (सेवा) नहीं कर सकता; ईर्या का शोधन नहीं कर मूलाचार के तीसरे कारण 'इरियट्ठाए' के स्थान पर सकता; प्रेक्षा आदि संयम-विधियों का पालन नहीं कर सकता; 'किरियट्ठाए' पाठ मिलता है। उसका अर्थ 'क्रिया के लिए- उसका बल क्षीण हो जाता है; गुणन और अनुप्रेक्षा करने में षडावश्यक आदि क्रिया का प्रतिलापन करने के लिए' किया वह अशक्त हो जाता है इसलिए भगवान् ने कहा है कि वेदना गया है।
की शांति के लिए मुनि आहार करे।' यह अन्तर यदि लिपि-दोष के कारण न हुआ हो तो धर्म-चिन्तन के लिए (धम्मचिंताए) यही मानना होगा कि उत्तराध्ययन में प्रतिपादित तीसरे कारण वृत्ति में धर्म के दो अर्थ हैं-धर्मध्यान और श्रुतधर्म।' से आचार्य वट्टकेर सहमत नहीं हैं। बौद्ध-ग्रन्थों में आहार लेने चार ध्यानों में धर्मध्यान प्रशस्तध्यान है। इसके आधार पर या करने की मर्यादा का उल्लेख करते हुए कहा गया है- व्यक्ति शुक्लध्यान में प्रवेश कर सकता है। श्रुतधर्म का अर्थ भिक्खू क्रीड़ा के लिए, मद के लिए, मण्डन करने के लिए, है- ज्ञान का आराधना, आगमों की अविच्छित्ति का प्रयत्न। विभूषा के लिए आहार न करे। परन्तु शरीर को कायम 'धम्मचिंता' शारीरिक बल और मनोबल के बिना नही होती। रखने के लिए, रोग के उपशमन के लिए, ब्रह्मचर्य का पालन अनाहार अवस्था में मन और शरीर क्लांत हो जाते हैं। अतः करने के लिए (शासन-ब्रह्मचर्य और मार्ग-ब्रह्मचर्य के लिए) मुनि धर्मचिंता के लिए आहार की गवेषणा करे। इस प्रकार आहार करता हुआ मैं भूख से उत्पन्न वेदना को २१. (श्लोक ३४) क्षीण करूंगा और नई वेदना को उत्पन्न नहीं करूंगा, ऐसा इस श्लोक में छह कारणों से आहार नहीं करना चाहिए
१. मूलाचार, ६६०:
वेणयवेज्जावच्चे किरियाठाणे य संजमट्ठाए।
तध पाणधम्मचिंता कुज्जा एदेहिं आहारं।। २. वही, ६६० वृत्ति : क्रियार्थं षडावश्यकक्रिया मम भोजनमन्तरेण न
प्रवर्तन्ते इति ताः प्रतिपालयामीति भुक्ते। ३. विशुद्धिमार्ग ११३१, पाद टिप्पण ८ : पटिसंखा योनिसो पिण्डपात
पटिसेवति, नेव दवाय, न मदाय, न मण्डनाय, न विभूसनाय, यावदेव इमस्स कायस्स ठितिया यापनाय विहिंसूपरतिया ब्रह्मचर्यानुग्गहाय, इति
पुराणं च वेदनं पटिहखामि, नवं च वेदनं न उप्पादेस्सामि, यात्रा च मे
भविस्सति फासुविहारो याति। ४. ओघनियुक्तिभाष्य, गाथा २६०, २६१ :
नत्थि छुहाए सरिसया, वेयण भुजेज्ज तप्पसमणट्ठा। छाओ वेयावच्चं, न तरइ काउं अओ भुंजे।। इरियं नवि सोहेइ, पेहाईयं च संजमं काउं।
थामो वा परिहायइ, गुणणुप्पेहासु य असत्तो।। ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ५४३।
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