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उत्तरज्झयणाणि
लिए देखें- पृष्ठ १०८
वृद्ध, ग्लान, शैक्ष आदि इसके अपवाद थे। विस्तार के की समाप्ति पर ही किया जाता है। " १५. (श्लोक २३)
१३. ( श्लोक १९, २० )
इन दो श्लोकों में नक्षत्र के आधार पर काल गहण की विधि बतलाई गई है। प्रत्येक रात्री का अपना एक नक्षत्र होता है। वह रात्री के प्रारम्भ से अन्त तक आकाश का अवगाहन करता है। मुनि आकाश के चार भाग करे। जब वह नक्षत्र आकाश के इन चार भागों में से एक भाग का अवगाहन कर लेता है, तब समझ लेना चाहिए कि रात्री का एक प्रहर बीत गया है । इसी प्रकार दूसरे-तीसरे और चौथे भाग की संपूर्ति पर दूसरा, तीसरा और चौथा प्रहर बीत जाता है। मुनि की दिनचर्या का यह प्रमुख सूत्र है कि वह सब कार्य ठीक समय पर करे- 'काले कालं समायरे' (दशवैकालिक ५।२।४) । जिस प्रकार वैदिक परम्परा में काल-विज्ञान का मूल यज्ञ है वैसे ही जैन - परम्परा में उसका मूल साधुओं की दिनचर्या है।
रात के चार भाग हैं- १. प्रादोषिक २. अर्धरात्रिक ३. वैरात्रिक ४. प्राभातिक ।"
प्रादोषिक और प्रभातिक इन दो प्रहरों में स्वाध्याय किया जाता है। अर्द्धरात्रि में ध्यान और वैरात्रिक में शयन किया जाता है।
१४. ( श्लोक २१, २२)
'पुव्विलॉम उन्माए यहां 'आइच्या समुझिए इतना शेष है ।' तथा 'पोरिसीए चउब्भाए' यहां 'अवशिष्यमाण' इतना शेष है।' 'अपडिक्कमित्ता कालस्स' यहां कायोत्सर्ग किए बिना ही पात्र प्रतिलेखना का विधान है। उसका तात्पर्य यह है कि चतुर्थ पौरुषी में फिर स्वाध्याय करना है । कायोत्सर्ग एक कार्य
१. (क) ओघनियुक्ति, गाथा ६५८ वृत्ति, पत्र २०५ :
कालानां चतुष्कं कालचतुष्कं तत्रैकः प्रादोषिकः द्वितीयो ऽर्द्धरात्रिकः तृतीयो वैरात्रिक चतुर्थः प्राभातिकः काल इति एतस्मिन् कालचतुष्के नानात्वं प्रदर्श्यते, तत्र प्रादोषिककाले सर्व एव समकं स्वाध्यायं प्रस्थापयन्ति, शेषेषु तु त्रिषु कालेषु समकं एककालं स्वाध्यायं प्रस्थापयन्ति विषमं वा न युगपद्वा स्वाध्यायं प्रस्थापयन्तीति । (ख) वही, गाथा ६६२, ६६३ :
.
४२६ अध्ययन २६ : श्लोक १६-२३ टि० १३,१५
पाओसिय अड्ढरते, उत्तरदिसि पुव्व पेहए काल । वेरत्तियंमि भयणा, पुव्वदिसा पच्छिमे काले ।।
सज्झायं काऊणं, पढमबितियासु दोसु जागरणं । अन्नं वावि गुणति, सुगंति झायन्ति वाऽसुद्धे ।।
२. बृहद्वृत्ति पत्र ५४० पूर्वस्मिंश्चतुर्भागे प्रथमपौरुषीलक्षणे प्रक्रमाद् दिनस्य प्रत्युपेक्ष्य 'भाण्डकं' प्राग्वद्वर्षाकल्पादि उपधिमादित्योदय-समय इति शेषः ।
३. वही, पत्र ५४० : द्वितीयसूत्रे च पौरुष्याश्चतुर्थभागेऽवशिष्यमाण इति गम्यते, ततोऽयमर्थः पादोनपौरुष्यां भाजनं प्रतिलेखयेदिति सम्बन्धः । ४. वही, पत्र ५४० स्वाध्यायादुपरतश्चेत्कालस्य प्रतिक्रम्यैव कृत्यान्तरमारब्धव्यमित्याशंक्येतात आह-अप्रतिक्रम्य कालस्य, तत्प्रतिक्रमार्थं कायोत्सर्गमविधाय, चतुर्थपौरुष्यामपि स्वाध्यायस्य विधास्यमानत्वात् ।
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इस श्लोक में पात्र सम्बन्धी तीन उपकरणों ( १ ) मुख- वस्त्रिका, (२) गोच्छग और (३) वस्त्र (पटल) का उल्लेख है। ओघनिर्युक्ति में पात्र सम्बन्धी सात उपकरणों का उल्लेख मिलता है - ( १ ) पात्र ( २ ) पात्र बन्ध, (३) पात्र - स्थापन, (४) पात्र - केशरिका, (५) पटल, (६) रजस्त्राण और (७) गोच्छग । इन्हें पात्र - निर्योग (पात्र परिकर ) कहा जाता है। पात्र को बांधने के लिए पात्र बन्ध, उसे रज आदि से बचाने के लिए पात्र स्थापन रखा जाता है। पात्र - केशरिका का अर्थ 'पात्र की मुख - वस्त्रिका' है। इससे पात्र की प्रतिलेखना की जाती है।
भिक्षाटन काल में स्कन्ध और आत्र को ढांकने के लिए तथा पुष्प फल, रज- रेणु आदि से बचाव करने के लिए पटल रखा जाता है। चूहों तथा अन्य जीव-जन्तुओं, बरसात के पानी आदि से बचाव के लिए रजस्त्राण रखा जाता है।" पटलों का प्रमार्जन करने के लिए गोच्छग होता है।" इनमें पात्र - स्थापन और गोच्छग ऊन के तथा मुख वस्त्रिका कपास की होती
है ।
ओघनियुक्ति में मुखवस्त्रिका के अनेक प्रयोजन निर्दिष्ट हैं- ( १ ) पात्र की प्रतिलेखना करने का वस्त्र, (२) बोलते समय संपातिम जीव मुंह में प्रवेश न कर जाएं, इस दृष्टि से मुंह पर रखने का वस्त्र, (३) सचित्त पृथ्वी तथा रेणुकण के प्रमार्जन के काम आने वाला वस्त्र, (४) वसति का प्रमार्जन करते समय नाक और मुंह में रजकण प्रवेश न करे, इसलिए नाक और मुंह पर बांधने का वस्त्र । ३
५. ओघनियुक्ति गाथा ६७४
६.
७.
८.
६.
पत्तं पत्ताबंधो, पायट्टवणं च पायकेसरिया ।
पडलाई रत्ताणं च गोच्छओ पायनिज्जोगो ।।
वही, गाथा ६६५ रयमादिरक्खणट्ठा पत्तट्ठवणं जिणेहिं पन्नत्तं ।
वही, गाथा ६६६ वृत्ति केसरिका ऽपि पात्रक - मुखवस्त्रिका ऽपि ।
वही, गाथा ६६६ पाय पमज्जणहेउं केसरिया...।
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(क) वही, गाथा ७०१ वृत्ति-स्कन्धः पात्रकं चाच्छाद्यते यावता तत्प्रमाणं पटलानामिति ।
(ख) वही, गाथा ७०२
'पुप्फ-फलोदय-रयरेणु-सउण परिहार- पाय रक्खट्ठा।
लिंगस्स य संवरणे, वेदोदयरक्खणे पडला।।'
१०. वही, गाथा ७०४ :
मूसयरजउक्केरे, वासे सिन्हा रए य रक्खट्ठा। होति गुणा रयतांणे पादे पादे य एक्केकं ।। ११. वही, गाथा ६६५
होइ पमज्जणहेउं तु गोच्छओ भाण-वत्थाणं ।
१२. वही, गाथा ६६४, वृत्ति — अत्र च पात्रस्थापनकं गोच्छकश्च एते द्वे अपि ऊणमिये वेदितव्ये, मुखवस्त्रिका खोमिया ।
१३. ओघनियुक्ति, गाथा ७१३:
संपातिमरयरेणुपमज्जणट्ठा वयंति मुहपोर्त्ति ।
नासं मुहं च बंधइ तीए वसहिं पमज्जंतो ।।
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