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सामाचारी
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अध्ययन २६ : श्लोक ८ टि० २
आपके लिए भोजन लाऊं?' इन दोनों सामाचारियों को 'छन्दना' व्यवस्था की दृष्टि से एक गण का साधु दूसरे गण में नहीं जा
और 'अभ्युत्थान' कहा जाता है।' अभ्युत्थान के अर्थ में सकता था। इसके कुछ अपवाद भी थे आपवादिक-विधि के निमंत्रण का भी प्रयोग किया जाता है।
अनुसार तीन कारणों से दूसरे गण में जाना विहित था। दूसरे इच्छाकार
गण में जाने को उपसंपदा कहा जाता था। ज्ञान की वर्त्तना __ संघीय व्यवस्था में परस्पर सहयोग लिया-दिया जाता है, (पुनरावृत्ति या गुणन), संधान (त्रुटित ज्ञान को पूर्ण करने) किन्तु वह बल-प्रेरित न होकर इच्छा-प्रेरित होना चाहिए। और ग्रहण (नया ज्ञान प्राप्त करने) के लिए जो उपसंपदा
औत्सर्गिक-विधि के अनुसार बल प्रयोग सर्वथा वर्जित है। बड़ा स्वीकार की जाती उसे 'ज्ञानार्थ उपसंपदा' कहा जाता था। इसी साधु छोटे साधु से और छोटा साधु बड़े साधु से कोई काम प्रकार दर्शन की वर्त्तना (स्थिरीकरण), संधान और दर्शन कराना चाहे तो उसे 'इच्छाकार' का प्रयोग करना चाहिए— विषयक शास्त्रों के ग्रहण के लिए जो उपसंपदा स्वीकार की 'यदि आपकी इच्छा हो तो मेरा काम आप करें', ऐसा कहना जाती, उसे 'दर्शनार्थ उपसंपदा' कहा जाता था। वैयावृत्त्य और चाहिए। आपवादिक मार्ग में आज्ञा और बलाभियोग का तपस्या की विशिष्ट आराधना के लिए जो उपसंपदा स्वीकार व्यवहार भी किया जा सकता है।'
की जाती, उसे 'चारित्रार्थ उपसंपदा कहा जाता था। मिथ्याकार
२. (पुव्विल्लंमि चउब्भाए आइच्चमि समुट्ठिए) साधक के द्वारा भूल होना संभव है किन्तु अपनी भूल 'पुब्बिलंमि चउब्भाए' यह आठवें तथा इक्कीसवें-दोनों का भान होते ही उसे 'मिथ्याकार' का प्रयोग करना चाहिए। श्लोकों का प्रथम चरण है। शान्त्याचार्य ने आठवें श्लोक की जो दुष्कृत को मिथ्या मानकर उससे निवृत्त होता है, उसी का व्याख्या में इसका अर्थ 'पौन-पौरुषी १० तथा इक्कीसवें की दुष्कृत मिथ्या होता है।
व्याख्या में इसका अर्थ 'प्रथम प्रहर" किया है। किन्तु बाईसवें तथाकार
श्लोक में पात्र-प्रतिलेखना का निर्देश है, वहां पौन-पौरुषी के जो मुनि कल्प और अकल्प को जानता है, महाव्रत में लिए 'पोरिसीए चउब्भाए' पाठ है और इक्कीसवें श्लोक में स्थित होता है, उसे 'तथाकार' का प्रयोग करना चाहिए। गुरु जब जहां वस्त्र-प्रतिलेखना का निर्देश है, वहां 'पुव्विल्लंमि चउब्भाए' सूत्र पढाएं, सामाचारी आदि का उपदेश दें, सूत्र का अर्थ बताएं पाठ है। अतः आठवें श्लोक में वस्त्र-प्रतिलेखना का ही निर्देश अथवा कोई बात कहें तब तथाकार का प्रयोग करना चाहिए.-- होना चाहिए। स्वाध्याय या वैयावृत्त्य का निर्देश वस्त्र-प्रतिलेखना 'आप जो कहते हैं वह अवितथ है—सच है' यों कहना चाहिए। के पश्चात् आचार्य से लिया जाता है। उपसंपदा
शान्त्याचार्य ने 'पुव्विल्लंमि चउभाए' का वैकल्पिक अर्थ प्राचीन काल में साधुओं के अनेक गण थे। किन्तु 'प्रथम-प्रहर' तथा 'भंडयं पडिलेहित्ता' का अर्थ 'वस्त्र-प्रतिलेखना' बृहद्वृत्ति, पत्र ५३४, ५३५ :
७. आवश्यक नियुक्ति गाथा ६८६ : (क) छन्दना प्रागगृहीतद्रव्यजातेन शेषयतिनिमन्त्रणात्मिका।
वायणपडिसुणणाए, उवऐसे सुत्तअत्थकहणाए। (ख) अभीत्याभिमुख्येनोत्थानम्-उद्यमनमभ्युत्थानं तच्च....आचार्यग्लान- अवितहमेअंति तहा, पडिसुणणाए अ तहकारो।।
बालादीनां यथोचिताहारभेषजादिसम्पादनम्, इह च सामान्याभिधाने- ८. बृहद्वृत्ति, पत्र ५३५ : 'अच्छणे' त्ति आसने प्रक्रमादाचार्यान्तरादिसन्निधी ऽप्यभ्युत्थानं निमन्त्रणारूपमेव परिगृह्यते।
अवस्थाने उप-सामीप्येन सम्पादनं--गमनं सम्पदादित्वात्विवपि २. आवश्यक नियुक्ति, गाथा ६६७ :
उपसंपद्-- इयन्तं कालं भवदन्तिके मयासितव्यमित्येवंरूपा। पुव्वगहिएण छंदण, निमंतणा होइ अगहिएणं।
६. आवश्यक नियुक्ति, गाथा ६६८, ६६E : ३. (क) आवश्यक नियुक्ति, गाथा ६७३ :
उपसंपया य तिविहा, नाणे तह दंसणे चरित्ते अ। अहयं तुभं एअं, कजं तु करेमि इच्छकारेणं।
दसणनाणे तिविहा, दुविहा य चरित्तअट्ठाए।। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ५३५ : इच्छा--स्वकीयोऽभिप्रायस्तया करणं -- वत्तणा संधणा चेव, गहणं सुत्तत्थतदुभए।।
तत्कार्यनिर्वर्तनभिच्छाकारः, 'सारणे' इत्यौचित्यत आत्मनः परस्य वेयावच्चे खमणे, काले आवक्कहाइ अ।। वा कृत्यं प्रति प्रवर्तने, तत्रात्मसारणे यथेच्छाकारेण युष्मच्चिकीर्षितं १०. बृहवृत्ति, पत्र ५३६ : 'पुचिल्लमि' त्ति पूर्वस्मिश्चतुर्भागे आदित्ये कार्यमिदमहं करोमीति।
'समुत्थिते' समुद्गते, इह च यथा दशाविकलोऽपि पटः पट एवोच्यते, ४. आवश्यक नियुक्ति, गाथा ६७७ :
एवं किञ्चिदूनोऽपि चतुर्भागश्चतुर्भाग उक्तः, ततोऽयमर्थः-बुद्ध्या आणा बलाभिओगो, निग्गंथाणं न कप्पए काउं।
नभश्चतुर्धा विभज्यते, तत्र पूर्वदिक्संबद्धे किश्चिदूननभश्चतुर्भागे यदादित्यः इच्छा पउजिअब्बा, सेहे रायणिए य तहा।।
समुदेति तदा, पादोनपौरुष्यामित्युक्तं भवति । ५. वही, गाथा ६७७ वृत्ति, पत्र ३४४ : अपवादतस्थाज्ञाबला- भियोगावपि ११. वही, पत्र ५४० : 'पूर्वस्मिश्चतुर्भाग' प्रथमपीरुषीलक्षणे प्रक्रमाद् दिनस्य।
दुर्विनीते प्रयोक्तव्यौ, तेन च सहोत्सर्गतः संवास एव न कल्पते, १२. ओघनियुक्ति वृत्ति, पत्र ११५ : उक्ता वस्त्रप्रत्युपेक्षणा, तत्समाप्ती च बहुस्वजनादिकारणप्रतिबद्धतया त्वपरित्याज्ये अयं विधिः, प्रथममिच्छाकरेण किं कर्तव्यमित्यत आह.--'समत्तपडिलेहणाए सज्झाओ' समाप्तायां योज्यते, अकुर्वन्नाज्ञया पुनर्बलाभियोगेनेति।
प्रत्युपेक्षणयां स्वाध्यायः कर्त्तव्यः सूत्रपौरुषीत्यर्थः, पादोनप्रहरं यावत् । वही, गाथा ६८२ :
इदानीं पात्रप्रत्युपेक्षणामाह। संजमजोगे अब्भुट्ठिअस्स, जं किंचि वितहमायरिअं। मिच्छा एअंति विआणिऊण मिच्छत्ति कायव्वं ।।
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