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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन २६ : श्लोक १२,१३ टि०६,७
शयन-विधि के इन विभिन्न प्रकारों को देखते हुए इसी निष्कर्ष दूसरे चन्द्र-वर्ष में श्रावण बदी १३ से वृद्धि प्रारम्भ और पर पहुंचते हैं कि तीसरे प्रहर में सोने की विधि या तो किसी माघ सुदी ४ से हानि प्रारम्भ। विशिष्ट साधु-वर्ग के लिए है या ओघनियुक्ति का विधान तीसरे वर्ष में श्रावण सुदी १० से वृद्धि प्रारम्भ और माघ पूर्वकालीन नहीं है।
बदी १ से हानि प्रारम्भ। मुनि के लिए सोने की नियुक्ति-कालीन-विधि इस प्रकार चौथे वर्ष में श्रावण बदी ७ से वृद्धि प्रारम्भ और माघ
बदी १३ से हानि प्रारम्भ पहला प्रहर पूरा बीतने पर गुरु के पास जाए। “इच्छामि पांचवे वर्ष में श्रावण सुदी से वृद्धि प्रारम्भ और माघ खमासमणो बंदिउं जावणिज्जाए निसीहियाए मत्थएण वंदामि, सुदी १० से हानि प्रारम्भ खमासमणा ! बहु पडिपुण्णा पोरिसी अणुजाणह राइसंसारयं"-- पौरुषी का कालमान यह पाठ बोल कर सोने की आज्ञा मांगे। फिर प्रस्रवण करे। पौरुषी का कालमान एक नहीं है। वह एक दिन सापेक्ष जहां सोने का स्थान हो वहां जाए। उपकरणों पर जो डोर बांधी होता है। जब दिन का कालमान बढ़ता है तब पौरुषी का हुई हो उसे खोले। संस्तार-पट्ट और उत्तर-पट्ट का प्रतिलेखन कालमान भी बढ़ता है। दिन का कालमान घटने से वह भी घट कर उन्हें उरु (साथल) पर रख दे। फिर सोने की भूमि का जाता है। दिन का भाग पौरुषी (प्रहर) होता है। दिन का प्रतिलेखन और प्रमार्जन करे। वहां संस्तार-पट्ट बिछाए, उस
कालमान जघन्य १२ मुहूर्त का होता है और उत्कृष्ट में १८ पर उत्तर-पट्ट बिछाए। मुख-वस्त्रिका से उपरले शरीर का और
मुहूर्त का। इसलिए प्रहर का कालमान जघन्य १२ ४ = ३ रजोहरण से निचले शरीर का प्रमार्जन करे। उत्तरीय वस्त्र को
___ मुहूर्त का उत्कृष्ट में १४ + ४ = ४. मुहूर्त का होता है। बाएं पार्श्व में रख दे। बिछौने पर बैठता हुआ पास में बैठे हुए ज्येष्ठ साधुओं की आज्ञा ले, फिर तीन बार सामायिक पाठ का
प्रतिदिन १ मुहूर्त पौरुषी बढ़ती व घटती है। और उच्चारण कर सोए। बांह का सिरहाना करे। बाएं पार्श्व से एक अयन में १८३ अहोरात्र होते हैं। इसलिए एक अयन में सोए। पैर पसारे तब मुर्गी की भांति पहले आकाश में पसारे, १८३.२१३ मुहूर्त कालमान बढ़ता है। जघन्य तीन वैसे न रह सके तब भूमि का प्रमार्जन कर पैर नीचे रख दे।
+१३ - ४३ मुहूर्त। पैरों को समेटे तब उरु-संधि का प्रमार्जन करे।' ६. प्रहर (पोरिसि)
पौरुषी का उत्कृष्ट कालमान एक अयन में ४' ही पौरुषी में प्रकरण में 'पुरुष' शब्द के दो अर्थ हैं-(१)
होगा। दिन पौरुषी बढ़ने से रात्रि की पौरुषी घटती है। जब पुरुष-शरीर और (२) शंकु । पुरुष के द्वारा उसका माप होता दिन का पौरुषी ४' मुहूर्त की होती है तब रात्रि की पौरुषी है, इसलिए उसे 'पौरुषी' कहा जाता है। शंकु २४ अंगुल का कालमान तीन मुहूर्त का होता है। रात्रि की पौरुषी बढ़ने प्रमाण का होता है और पैर से जानु तक का प्रमाण भी २४ से दिन की पौरुषी घटती है। जब रात्रि की पौरुषी ४: मुहूर्त अंगूल होता है। जिस दिन वस्तु की छाया उसके प्रमाणोपेत की होती है तब दिन की पौरुषी का कालमान तीन मुहूर्त का होती है, वह दिन दक्षिणायन का प्रथम दिन होता है। युग के होता है। प्रथम वर्ष (सूर्य-वर्ष) के श्रावण बदी १ को शंकु की छाया शंकु ७. (श्लोक १३) के प्रमाण २४ अंगुल पड़ती है। १२ अंगुल प्रमाण का एक पाद
एक वर्ष में दो अयन होते हैं--(१) दक्षिणायन और होने से शंकु की छाया दो पाद होती है।
(२) उत्तरायण। दक्षिणायन श्रावण मास में प्रारम्भ होता है युग के प्रथम सूर्य-वर्ष में श्रावण बदी १ को दो पग
और उत्तरायण माघ मास में। प्रमाण छाया होती है और माघ बदी ७ को चार पग प्रमाण।
एक मास में छाया ४ अंगुल प्रमाण बढ़ती है। उत्तरायण
१. बृहवृत्ति, पत्र ५३८, ५३६। २. काललोकप्रकाश, २८६६२ :
शंकुः पुरुषशब्देन, स्याद् देहः पुरुषस्य वा।
निष्पन्ना पुरुषात् तस्मात्, पौरुषीत्यपि सिद्धचति ।। ३. वही, २८।१०।११ :
चतुर्विंशत्यंगुलस्य, शंकोश्छाया यथोदिता। चतुविंशत्यंगुलस्य, जानोरपि तथा भवेत्।। वही, २८९६३ : स्वप्रमाणं भवेच्छाया, यदा सर्वस्य वस्तुनः । तदा स्यात् पौरुषी, याम्या-यानस्य प्रथमे दिने।।
५. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा २०७० :
पीरिसीमाणमनिययं, दिवस निसा बुढि हाणि भावओ।
हीणं तिन्नि मुहुत्तद्धपंचममाणमुक्कोसं ।। ६. वही, गाथा २०७१ :
वुड्ढी यावीसुत्तर-सय भागोपइदिणं मुहुत्तस्स।
एवं हाणी विमया, अयण दिन भागओ नेया।। ७. (क) ओघनियुक्ति, गाथा २८३।
(ख) समवायांग, समवाय ३०। (ग) चन्द्रप्रज्ञप्ति, प्राभृत १०, ११।
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