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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन २६ : श्लोक ८ टि० ३,४
किया है।' इक्कीवें श्लोक के संदर्भ में यह वैकल्पिक अर्थ ही ३. भाण्ड-उपकरणों की (भंडय) संगत लगता है।
पौन-पौरुषी की प्रतिलोना के प्रकरण में 'भण्डक' का जयाचार्य के अनुसार दिन के प्रथम चतुर्थ भाग का अर्थ अर्थ 'पात्र आदि उपकरण' तथा प्रभातकालीन प्रतिलेखना के 'प्रथम-प्रहर का प्रथम चतुर्थ भाग' है। साधारणतया यह प्रकरण में उसका अर्थ 'पछेवडी आदि उपकरण' होता है। कालमान सूर्योदय के २ घड़ी (१८ मिनट) तक का है। ३ घण्टा ४. प्रतिलेखना करे (पडिलेहिता) १२ मिनट का प्रहर होने से ४७ मिनट का कालमान पूरा
प्रतिलेखना और प्रमार्जना ये दोनों परस्पर संबंधित हैं। चौथा भाग होता है। जब दिन का प्रहर ३ घंटा ३० मिनट का
ट का जहां प्रतिलेखना का निर्देश होता है, वहां प्रमार्जना स्वयं आ होता है, उस समय चौथा भाग ५२ मिनट का होता है। उस जाती है और जहां प्रमार्जना का निर्देश होता है, वहां प्रतिलेखना समय ४८ मिनट चौथे भाग से कुछ कम होता है।
स्वयं प्राप्त होती है। प्रतिलेखना का अर्थ है 'दृष्टि से देखना' जयाचार्य का अभिप्राय उत्तरवर्ती साहित्य और परम्परा और प्रमार्जन का अर्थ है 'झाडकर साफ करना।' पहले पर आधारित है। प्राचीन परम्परा के अनुसार वस्त्र-प्रतिलेखना प्रतिलेखना और तत्पश्चात प्रमार्जना की जाती है। सूर्योदय के साथ समाप्त हो जाती थी। इसीलिए शान्त्याचार्य ने
प्रतिलेखनीय लिखा है कि बहुत प्रकाश होने से सूर्य के अनुत्थान या अनुदय
शरीर (खड़े होते, वैठते और सोते समय), उपाश्रय, को ही उत्थान या उदय कहा गया है।
उपकरण, स्थण्डिल (मल-मूत्र के परिष्ठापना की भूमि), अवष्टम्भ ओघनियुक्ति में प्रभातकालीन प्रतिलेखना-काल के चार
और मार्ग—ये प्रतिलेखनीय हैं-इनकी प्रतिलेखना की जाती है।
और मार्ग ये अभिमतों का उल्लेख मिलता है
उपकरण-प्रतिलेखना दो प्रकार की होती है—(१) वस्त्र-प्रतिलेखना (१) सूर्योदय का समय-प्रभास्फाटन का समय।
और (२) पात्र-प्रतिलेखना। पात्र प्रतिलेखना का क्रम और (२) सूर्योदय के पश्चात् प्रभास्फाटन होने के पश्चात्।
विधि तेईसवें श्लोक में प्रतिपादित है। वस्त्र-प्रतिलेखना की (३) परस्पर जब मुख दिखाई दे।
विधि चौबीस से अठाईसवें श्लोक तक प्रतिपादित है। ओघनियुक्ति (४) जिस समय हाथ की रेखा दिखाई दे।
में गाथा २८८ से २६५ (पत्र ११७-११६) तक पात्र-प्रतिलेखना ये अनादेश माने गए हैं। निर्णायक पक्ष यह है कि
का विवरण है और गाथा २६४ से २६६ (पत्र १०८-१११) प्रतिक्रमण के पश्चात्
तक वस्त्र-प्रतिलेखना का विवरण है। (१) मुख-वस्त्रिका, (२) रजोहरण, (३-४) दो निषधाए- प्रतिलेखना-काल एक सूत्र की आभ्यन्तर निषद्या और दूसरी बाहरी पाद-प्रोञ्छन,
वस्त्र-प्रतिलेखना के दो काल हैं--पूर्वाह्न (प्रथम-प्रहर) (५) चोलपट्टक, (६-८) तीन उत्तरीय, (६) संस्तारक पट्ट और
और अपराहून (चतुर्थ-प्रहर) । पात्र-प्रतिलेखना का काल भी (१०) उत्तर-पट्र की प्रतिलेखना के अनन्तर ही सूयादय हा यही है। काल-भेद से प्रतिलेखना के तीन काल हो जाते हैंजाए, वह उस (प्रतिलेखना) का काल है।" बहुमान्य अभिमत
(१) प्रभात, (२) अपराह्न तीसरे प्रहर के पश्चात् यही रहा है।
१. बृहद्वृत्ति, पत्र ५३६ : यद्वा पूर्वस्मिन्नभश्चतुर्भागे आदित्ये समुत्थिते
इव समुत्थिते, बहुतरप्रकाशीभवनात्तस्य, भाण्डमेव भाण्डकं ततस्तदिव धर्मद्रविणोपार्जनाहेतुत्वेन मुखवस्त्रिकावर्षाकल्पादीह भाण्डकमुच्यते, तत्प्रतिलेख्य। उत्तराध्ययन जोड़ पत्र ३७ : दिवस तणा पहिला पोहर रै मांहि । धुरला चौथा भाग में ताहि ।। एतले दो घड़ी ने विषह। सूर्य उग्या थी ए लेह ।।३२।। वस्त्रादिक उपगरण सुमंड। पडिलेही रुडी रीत सुभंड।। पडिलेहणा किया पछे तिवार। गुरु प्रतिवंदि करी नमस्कार ।। ३३ ।।
बृहद्वृत्ति, पत्र ५३६। ४. ओधनियुक्ति, वृत्ति गा० २६६, २७० :
(ख) प्रवचनसारोद्धार, गाथा ५६०वृत्ति, पत्र १६६ :
प्रतिक्रमणकरणानन्तरं अनुद्गते सूरे-सूर्योद्गमादर्वाग् । (ग) धर्मसंग्रह, पृ० २२ : प्रतिलेखना सूर्येनुद्गते एव कर्त्तव्या। ६. ओघनियुक्ति, गाथा २६३ :
ठाणे उवगरणे य धंडिलउवथंभमग्गपडिलेहा।
किमाई पडिलेहा, पुबण्हे चेव अवरण्हे ।। ७. ओघनियुक्ति भाष्य, गाथा १५८ :
उवगरण वत्थपाए, वत्थे पडिलेहणं तु वोच्छामि।
पुवण्हे अवरण्हे, मुहणंतगमाइ पडिलेहा ।। ८. (क) ओपनियुक्ति भाष्य, गाथा १५८ वृत्ति : पूर्वाहूणे वस्त्रप्रत्युपेक्षणा
भवत्यपराहणे च। (ख) बृहवृत्ति, पत्र ५३७ : तृतीयायां भिक्षाचर्यां पुनश्चतुर्थ्या स्वाध्यायम्,
उपलक्षणत्वात्तृतीयायां भोजनबहिर्गमनादीनि, इतरत्र तु
प्रतिलेखनास्थण्डिलप्रत्युपेक्षणादीनि गृह्यन्ते। ९. (क) ओघनियुक्ति भाष्य, गाथा १७३ वृत्ति : पात्रप्रत्युपेक्षणामाह
'चरिमाए' चरमाया पादोनपौरुष्यां प्रत्युपेक्षेत 'ताहे' ति 'तदा'
तस्मिन् काले स्वाध्यायानन्तरं पात्रकद्वितयं प्रत्युपेक्षेत। (ख) उत्तरज्झयणाणि २६।२२, ३६।
अरुणावासग पुव्वं परोप्परं पाणिपडिलेहा ।। एते उ अणाएसा अंधारे उग्गएविहु न दीसे।
४. (क) ओघनियुक्ति, गा० २७० :
मुहरयनिसिज्जचोले, कप्पतिगदुपट्टथुई सूरो।
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