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टिप्पण
अध्ययन २६ : सामाचारी
१. (श्लोक १-७)
तो नैषेधिकी का उच्चारण करे। “मैं आवश्यक कार्य से निवृत्त दस समाचारी का वर्णन भगवती (२५५५५), स्थानाङग हो चुका हूं, अब मैं प्रवृत्ति के समय कोई अकरणीय कार्य हुआ (१०।१०२) और आवश्यक नियुक्ति में भी है। उत्तराध्ययन में हो इसका निषेध करता हूं, उससे अपने आपको दूर करता सामाचारी का क्रम उनसे भिन्न है। उनकी प्रथम तीन समाचारियों हूं'-इस भावना के साथ वह स्थान में प्रवेश करता है। यह को यहां छठा, सातवां और आठवां स्थान प्राप्त है। नौवें साधुओं के गमनागमन की सामाचारी है। गमन और आगमन सामाचारी का नाम भी भिन्न है। भगवती आदि में उसका नाम काल में उसका लक्ष्य अबाधित रहे, इसका इन दो सामाचारियों 'निमंत्रण' है। यहां उसका नाम 'अभ्युत्थान' है।
में सम्यक चिन्तन है। ___ आवश्यक नियुक्ति में सामाचारी तीन प्रकार की बतलाई आपृच्छा, प्रतिपूच्छा गई है-(१) ओघ सामाचारी, (२) दस-विध सामाचारी और सामान्य विधि यह है कि उच्छवास और निःश्वास के (३) पद-विभाग सामाचारी।'
सिवाय शेष सब कार्यों के लिए गुरु की आज्ञा लेनी चाहिए।" _ 'ओघ सामाचारी' का प्रतिपादन ओघनियुक्ति में है। यहां आज्ञा के दो स्थान बतलाए गए हैं—स्वयंकरण, परकरण। उसके सात द्वार हैं—(१) प्रतिलेखन (२) पिण्ड, (३) उपधिप्रमाण, प्रथम प्रवृत्ति को 'स्वयंकरण' तथा अपर प्रवृत्ति को (४) अनायतन (अस्थान) बर्जन, (५) प्रतिसेवान—दोषाचरण, 'परकरण' कहा जाता है। स्वयंकरण के लिए आपृच्छा (प्रथम (६) आलोचना और (७) विशोधि।
बार पूछने) तथा परकरण के लिए प्रतिपृच्छा (पुनः पूछने) का ___ 'पद-विभाग समाचारी' छेद सूत्रों में कथित विषय है। विधान है। 'दस-विध सामाचारी' का वर्णन इस अध्ययन में है। वह इस आवश्यक नियुक्ति के अनुसार प्रथम वार या द्वितीय प्रकार है
वार किसी भी प्रवृत्ति के लिए गुरु से आज्ञा प्राप्त करने को आवश्यकी, नैषेधिकी
'आपृच्छा' कहा जाता है। प्रयोजनवश पूर्व-निषद्ध कार्य करने सामान्य विधि यह है कि मनि जहां ठहरा हो उस की आवश्यकता होने पर गुरु से उसकी आज्ञा प्राप्त करने को उपाश्रय से बाहर न जाए। विशेष विधि के अनुसार आवश्यक 'प्रतिपृच्छा' कहा जाता है। गुरु के द्वारा किसी कार्य पर कार्य होने पर वह उपाश्रय से बाहर जा सकता है। किन्त नियुक्त किए जाने पर उसे प्रारम्भ करते समय पुनः गुरु की बाहर जाते समय समाचारी का ध्यान रखते हुए वह आवश्यकी आज्ञा लेनी चाहिए-यह भी प्रतिपृच्छा का आशय है। करे—आवश्यकी का उच्चारण करे। 'आवश्यक कार्य के लिए छन्दना, अभ्युत्थान बाहर जा रहा हूं'-इसे निरन्तर ध्यान में रखे, अनावश्यक मुनि को भिक्षा में जो प्राप्त हो उसके लिए अन्य साधुओं कार्य में प्रवृत्ति न करे। आवश्यकी का प्रतिपक्ष शब्द है को निमंत्रित करना चाहिए तथा जो आहार प्राप्त न हो उसे नैषेधिकी। कार्य से निवृत्त होकर जब वह स्थान में प्रवेश करे लाने जाए तब दूसरे साधुओं से पूछना चाहिए.--'क्या मैं
१. आवश्यक नियुक्ति, गाथा ६६५। २. ओघनियुक्ति, गाथा २:
पडिलेहणं च पिंडं, उवहिपमाणं अणाययणवज्ज। पडिसेवण मालोअण, जह य विसोही सुविहियाणं ।। बृहद्वृत्ति, पत्र ५३४ : ‘गमने' तथाविधालम्बनतो बहिनिःसरणे
आवश्यकेषु अशेषावश्यकर्त्तव्यव्यापारेषु सत्सु भवाअवश्यकी, उक्त हि.“आवास्सिया उ आवस्सएहिं सुब्बेहिं जुत्तजोगस्से" त्यादि तां 'कुर्याद्'
विदध्यात्। ४. वही, पत्र ५३४ : स्थीयतेऽस्मिन्नित्ति स्थानम्-उपाश्रयस्तस्मिन्
प्रविशन्निति शेषः, कुर्यात, कां ? 'नषेधिकी' निषेधन निषेधः-पापानुष्ठानेभ्य आत्मनो व्यावर्त्तनं, तस्मिन् भवा नैषेधिकी, निषिद्धात्मन एतत्सम्भवात्,
उक्तं हि—'जो होइ निसिद्धप्पा निसीहिया तस्स भावओ होइ।' ५. वही, पत्र ५३५ : उच्छ्वासनिःश्वासी विहाय सर्वकार्यञ्चपि स्वपरसम्बन्धिषु
गुरवः प्रष्टव्याः। ६. वही, पत्र ५३४ : आडिति-सकलकूत्याभिव्याप्या प्रच्छना आप्रच्छना
इदमहं कुर्या न वेत्येवंरूपा तां स्वयमित्यात्मनः करणं- कस्यचिद्विवक्षितकार्यस्य निर्वत्तनं स्वयंकरण तस्मिन्, तथा 'परकरणे'
अन्यप्रयोजनविधाने प्रतिप्रच्छना। ७. आवश्यक नियुक्ति, गाथा ६६७ :
आपुच्छणा उ कज्जे, पुवनिसिद्धेण होइ पडिपुच्छा। ८. बृहद्वृत्ति, पत्र ५३४ : गुरुनियुक्तोऽपि हि पुनः प्रवृत्तिकाले प्रतिपृच्छत्येव
गुरु, स हि कार्यान्तरमप्यादिशेत् सिद्धं वा तदन्यतः स्यादिति।
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