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उत्तरझयणाणि
२७. अलोलुयं मुहाजीवी अणगारं अकिंचणं । असंसत्तं गिहत्थेसु तं वयं बूम माहणं ।।
( जहित्ता पुव्वसंजोगं नाइसंगे य बंधवे । जो न सज्जइ एएहिं तं वयं बूम माहणं । । )
२८. पसुबंधा सव्ववेया जट्टं च पावकम्मुणा । न तं तायंति दुस्सीलं कम्माणि बलवंति ह ।।
२६. न वि मुंडिएण समणो न ओंकारेण बंभणो । न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण न तावसो ।।
३०. समयाए समणो होइ बंभचेरेण बंभणो । नाणेण य मुणी होइ तवेणं होड़ तावसो ।। ३१. कम्मुणा बंभणो होइ
कम्मुणा होइ खत्तिओ । वइस्सो कम्मुणा होइ सुद्दो हवइ कम्मुणा ।।
३२. एए पाउकरे बुद्धे
जेहिं होड सिणायओ सव्वकम्मविनिम्मुक्कं तं वयं बूम माहणं ।।
३३. एवं गुणसमाउत्ता
जे भवंति दिउत्तमा । ते समत्था उ उद्धत्तुं परं अप्पाणमेव य
३४. एवं तु संसए छिन्ने विवधोसे य माहणे । समुदाय तयं तं तु जयघोसं महामुनिं ।।
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अलोलुपं मुधाजीविनं अनगारमकिंचनम् । असंसक्तं गृहस्थेषु तं वयं ब्रूमो माहनम् ।।
( हित्वा पूर्वसंयोगं ज्ञातिसंगांश्च बान्धवान् । यो न स्वजति एतेषु तं वयं ब्रूमो माहनम् ।
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पशुबन्धाः सर्ववेदाः इष्टं च पाप-कर्मणा । न तं त्रायन्ते दुःशीलं कर्माणि बलवन्ति इह ।।
नाऽपि मुण्डितेन श्रमणः न ओंकारेण ब्राह्मणः । न मुनिररण्यवासेन कुशचीवरेण न तापसः ।।
समतया श्रमणो भवति ब्रह्मचर्येण ब्राह्मणः । ज्ञानेन च मुनिर्भवति तपसा भवति तापसः ।।
कर्मणा ब्राह्मणो भवति कर्मणा भवति क्षत्रियः । वैश्यो कर्मणा भवति शूद्रो भवति कर्मणा ।।
एतान् प्रादुरकाषद् बुद्धः यैर्भवति स्नातकः । सर्वकर्मविनिर्मुक्तः तं वयं ब्रूमो माहनम् ।।
एवं गुणसमायुक्ताः
ये भवन्ति द्विजोत्तमाः । ते समर्था परमात्मानमेव च ॥
एवं तु संशये छिन्ने विजयषोषश्च माहनः । समुदाय तां तंतु जयोघोषं महामुनिम् ॥
अध्ययन २५ : श्लोक २७-३४
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“जो लोलुप नहीं है, जो निष्कामजीवी है, जो गृह-त्यागी है, जो अकिंचन है, जो गृहस्थों में अनासक्त है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।"
(जो पूर्व संयोगों, ज्ञाति-जनों की आसक्ति और बान्धवों को छोड़कर उनमें आसक्त नहीं होता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ।)
"जिनके शिक्षा - पद पशुओं को बलि के लिए यज्ञस्तूपों में बांधे जाने के हेतु बनते हैं, वे सब वेद और पशु बलि आदि पापकर्म के द्वारा किए जाने वाले यज्ञ दुःशील सम्पन्न उस यज्ञकर्त्ता को त्राण नहीं देते, क्योंकि कर्म बलवान् होते हैं।"
"केवल सिर मूंड लेने से कोई श्रमण नहीं होता, 'ओम्' का जप करने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता, केवल अरण्य में रहने से कोई मुनि नहीं होता और कुश का चीवर पहनने मात्र से कोई तापस नहीं होता ।"
“ समभाव की साधना करने से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य के पालन से ब्राह्मण होता है, ज्ञान की -मनन करने से मुनि होता है, तप का आचरण करने से तापस होता है।"२०
आराधना
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“ मनुष्य कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय होता है, कर्म से वैश्य होता है और कर्म से ही शूद्र होता है । २१
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“इन तत्त्वों को अर्हत् ने प्रकट किया है। इनके द्वारा जो मनुष्य स्नातक होता है, जो सब कर्मों से मुक्त होता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।”
“इस प्रकार जो गुण सम्पन्न द्विजोत्तम होते हैं, वे ही अपना और पराया उद्धार करने में समर्थ हैं।"
“इस प्रकार संशय दूर होने पर विजय घोष ब्राह्मण ने जयघोष की वाणी को भलीभांति समझा और संतुष्ट हो, हायजोड़ कर महामुनि जयघोष से इस
प्रकार कहा
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