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अध्ययन १८ : श्लोक १७-२५
"उस मरने वाले व्यक्ति ने भी जो कर्म किया--- सुखकर या दुःखकर उसी के साथ वह परभव में चला जाता है।"
वह संजय राजा अनगार के समीप महान् आदर के साथ धर्म सुन कर मोक्ष का इच्छुक और संसार से उद्विग्न हो गया।
संजय राज्य छोड़ कर भगवान् गर्दभालि अनगार के समीप जिन-शासन में दीक्षित हो गया।
संजयीय
२८९ १७.तेणावि जं कयं कम्म तेनापि यत् कृतं कर्म
सुहं वा जइ वा दुहं। सुखं वा यदि वा दुःखम्। कम्मुणा तेण संजुत्तो कर्मणा तेन संयुक्तः
गच्छई उ परं भवं ।। गच्छति तु परं भवम् ।। १८.सोऊण तस्स सो धर्म श्रुत्वा तस्य स धर्म अणगारस्स अंतिए।
अनगारस्यान्तिके। महया संवेगनिव्वेयं महता संवेगनिर्वेद
समावन्नो नराहिवो।। समापन्नो नराधिपः।। १६.संजओ चइउं रज्जं
संजयस्त्यक्त्वा राज्यं निक्खंतो जिणसासणे। निष्क्रान्तो जिनशासने। गद्दमालिस्स भगवओ गर्दभालेभगवतः
अणगारस्स अंतिए।। अनगारस्यान्तिके।। २०.चिच्चा रट्ठ पव्वइए त्यक्त्वा राष्टं प्रव्रजितः खत्तिए परिभासइ।
क्षत्रियः परिभाषते। जहा ते दीसई रूवं
यथा ते दृश्यते रूपं पसन्नं ते तहा मणो।। प्रसन्नं ते तथा मनः।। २१.किंनामे ? किंगोत्ते? किंनामा? किंगोत्रः?
कस्सट्ठाए व माहणे?। कस्मै अर्थाय वा माहनः?। कहं पडियरसी बुद्धे? कथं प्रतिचरसि बुद्धान् ?
कहं विणीए ति वुच्चसि ?।। कथं विनीत इत्युच्यसे ?।। २२.संजओ नाम नामेणं संजयो नाम माम्ना
तहा गोत्तेण गोयमो। तथा गोत्रेण गौतमः। गद्दभाली ममायरिया
गर्दभालयो ममाचार्याः विज्जाचरणपारगा।।
विद्याचरणपारगाः।।
जिसने राष्ट्र को छोड़ कर प्रव्रज्या ली, उस क्षत्रिय ने० (अप्रतिबद्ध विहारी राजा संजय से) कहा--- "तुम्हारी आकृति जैसे प्रसन्न दीख रही है वैसे ही तुम्हारा मन भी प्रसन्न दीख रहा है।" “तुम्हारा क्या नाम है? गोत्र क्या है ? किसलिए तुम माहन-मुनि बने हो? तुम किस प्रकार आचार्यों की सेवा करते हो और किस प्रकार विनीत कहलाते
हो?"
“नाम से मैं संजय हूं। गोत्र से गौतम हूं। गर्दभालि मेरे आचार्य हैं विद्या और चारित्र के पारगामी। मुक्ति के लिए मैं माहन बना हूं। आचार्य के उपदेशानुसार मैं सेवा करता हूं इसलिए मैं विनीत कहलाता हूं।" वे क्षत्रिय श्रमण बोले-"महामुने ! क्रिया, अक्रिया, विनय और अज्ञान-इन चार स्थानों के द्वारा एकान्तवादी तत्त्ववेत्ता'२ क्या तत्त्व बतलाते हैं१३
क्रियः किया विनयः अज्ञानं च महामुने! एतैश्चतुर्भिः स्थानैः मेयज्ञः किं प्रभाषते।।
२३.किरियं अकिरियं विणयं
अन्नाणं च महामुणी!। एएहिं चउहिं ठाणेहिं
मेयण्णे किं पभासई ?|| २४.इइ पाउकरे बुद्धे
नायए परिनिव्वुडे। विज्जाचरणसंपन्ने
सच्चे सच्चपरक्कमे ।। २५.पडंति नरए घोरे
जे नरा पावकारिणो। दिव्वं च गई गच्छति चरित्ता धम्ममारियं ।।
"उसे तत्त्ववेत्ता ज्ञात-वंशीय, उपशांत, विद्या और चारित्र से सम्पन्न, सत्यवाक् और सत्य-पराक्रम वाले भगवान् महावीर ने प्रकट किया है।"
इति प्रादुरकरोद् बुद्धः ज्ञातकः परिनिर्वृतः। विद्याचरणसंपन्नः सत्यः सत्यपराक्रमः।। पतन्ति नरके घोरे ये नराः पापकारिणः। दिव्यां च गतिं गच्छन्ति चरित्वा धर्ममार्यम् ।।
“जो मनुष्य पाप करने वाले हैं वे घोर नरक में जाते हैं और आर्य-धर्म का आचरण कर मनुष्य दिव्य-गति को प्राप्त होते हैं।"
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