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टिप्पण
अध्ययन २१ : समुद्रपालीय
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१. चंपा नगरी में (चंपाए)
द्वारा की जाने वाली समुद्र-यात्रा का वर्णन है। दीघ-निकाय यह अंग जनपद की राजधानी थी। वर्तमान में इसकी (१२२२) में वर्णन आता है कि दूर-दूर देशों तक समुद्र-यात्रा पहचान भागलपुर से २४ मील पूर्व में स्थित आधुनिक 'चंपापूर' करने वाले व्यापारी अपने साथ पक्षी रखते थे। जब जहाज और 'चम्पानगर' नामक दो गांवों से की जाती है। स्थल से बहुत दूर दूर पहुंच जाता और भूमि के कोई चिन्ह विशेष विवरण के लिए देखें-परिशिष्ट १, भौगोलिक
दिखाई नहीं देते, तब उन पक्षियों को छोड़ दिया जाता था। परिचय।
यदि भूमि निकट ही रहती तो वे पक्षी वापस नहीं आते अन्यथा
थोड़ी देर तक इधर-उधर उड़कर वापस आ जाते थे। २. श्रावक (सावए)
आवश्यक नियुक्ति के अनुसार जल-पोतों का निर्माण भगवान् महावीर का संघ चार भागों में विभक्त था
भगवान् ऋषभ के काल में हुआ था। जैन-साहित्य में 'जलपत्तन' श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका। भगवान् ने दो प्रकार
के अनेक उल्लेख मिलते हैं। वहां नौकाओं के द्वारा माल का धर्म बताया-अगार-चारित्र-धर्म और अनगार-चारित्र-धर्म।
आता था। जो अगार-चारित्र-धर्म का पालन करता है, वह श्रावक या
सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन आदि में दुस्तर-कार्य की श्रमणोंपासक कहलाता है।
समुद्र-यात्रा से तुलना की गई है। नालन्दा के लेप नामक ३. कोविद (विकोविए)
गाहावई के पास अनेक यान-पात्र थे। सिंहलद्वीप, जावा, बहुत से श्रावक भी निर्ग्रन्थ प्रवचन के विद्वान् होते थे।
सुमात्रा आदि में अनेक व्यापारी जाते थे। ज्ञाता-धर्मकथा औपपातिक सूत्र में श्रावकों को लब्धार्थ, पृष्टार्थ, गृहीतार्थ
(१६) में जिनपालित और जिनरक्षित के बारह बार लवण-समुद्र आदि कहा गया है। राजीमती के लिए भी 'बहुश्रुत' विशेषण की यात्रा करने का उल्लेख है। लवण-समद्र-यात्रा का प्रलम्ब प्रयुक्त है।
वर्णन ज्ञाता-धर्मकथा (१।१७) में भी है। ४. पोत से व्यापार करता हुआ (पोएण ववहरते)
५. पिहुंड नगर में (पिहुंड) भारत में नौका व्यापार करने की परम्परा बहुत प्राचीन यह समद के किनारे पर स्थित एक नगर था। विशेष है। ऋग्वेद (१।२५७; १४८।३; १५६।२; १११६ ॥३; विवरण के लिए देखें-परिशिष्ट १, भौगोलिक परिचय। २।४८ ॥३, ७।८८।३-४) में समुद्र में चलने वाली नावों का
६. सुखोचित (सुहोइए) उल्लेख आता है तथा भुज्युनाविक के बहुत दूर चले जाने पर
वृत्तिकार ने इसका अर्थ सुकुमार किया है। प्रस्तुत मार्ग भूल जाने व पूषा की स्तुति करने पर सुरक्षित लौट आने
आगम में १६३४ में सुखोचित और सुकुमार-दोनों शब्द का का वर्णन है।
एक साथ प्रयोग है। इसलिए सुखोचित का अर्थ-सुख भोगने पण्डार जातक (२११२८, ५७५) में ऐसे जहाजों का उल्लेख
के योग्य होना चाहिए। है, जिनमें लगभग पांच सौ व्यापारी यात्रा कर रहे थे; जो कि
७. बहत्तर कलाएं (बावत्तरिं कलाओ) डूब गए। विनय-पिटक में पूर्ण नामी एक भारतीय व्यापारी के छ: बार समुद-यात्रा करने का वर्णन है। संयुक्त-निकाय (२।११५,
बहत्तर कलाओं की जानकारी के लिए देखें-समवाओ,
समवाय ७२। ५१५१) व अंगुत्तर-निकाय (२७) में छः छः महीने तक नाव
१. ठाणं, ४/६०५ : चउव्यिहे संधे पं० तं-समणा समणीओ सावया
सावियाओ। २. वही, २/१०६ : चरित्तधम्मे दुविहे पं० त०-अगारचरित्तधम्मे वेव
अणगारचरित्तधम्मे चेव। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ४२८ 'नम्रन्थे' निग्रन्थसम्बन्धिनि 'पावयणे' ति प्रवचने
श्रावकः सः इति पालितो विशेषेण कोविदः-पंडितो विकोविदः। ४. ओवाइयं, सूत्र १२०। ५. उत्तरज्झयणाणि, २२३२ : सीलवंता बहुस्सुया।
६. आवश्यक नियुक्ति, २१४ : पोता तह सागरंमि वहणाई। ७. (क) बृहत्कल्प भाष्य, भाग २, पृ० ३४२।
(ख) आचारांग चूर्णि, पृ० २८१। ८. (क) सूयगडो, १।११।५।
(ख) उत्तरज्झयणाणि, ८।६। ६. सूयगडो, २७।६६। १०. बृहवृत्ति, पत्र ४८३ : सुखोचितः-सुकुमारः।
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