________________
मूल
१. माहणकुलसंभूओ
आसि विप्पो महायसो । जायाई जमजण्णमि जयघोसे त्ति नामओ ।।
२. इंदियग्गामनिग्गाही
मग्गगामी महामुनी । गामाणुगामं रीयंते पत्ते वाणारसिं पुरिं ।। ३. वाणारसीए बहिया उज्जाणंमि मणोरमे । फासु सेज्जसंथारे तत्थ वासमुवागए ।। ४. अह तेणेव कालेणं पुरीए तत्थ माहणे । विजयघोसे त्ति नामेण जणं जयइ वेयवी ।। ५. अह से तत्थ अणगारे मासक्खमणपारणे । विजयघोसस्स जण्णमि भिक्खमट्ठा उवट्टिए । ।
पंचविंसइमं अज्झयणं : पचीसवां अध्ययन जन्नइज्जं : यज्ञीय
६. समुवद्वियं तहिं संतं
जायगो पडिसेहए । न हु दाहामि ते भिक्खं भिक्खू ! जायाहि अन्नओ ।। ७. ८. जे य वेयविऊ विप्पा जण्णट्ठा य जे दिया। जोइसंगविऊ जे य जे य धम्माण पारगा ।। जे समत्था समुद्धत्तुं परं अप्पाणमेव य । तेसिं अन्नविणं देयं भो भिक्खु ! सव्वकामियं ।।
Jain Education International
संस्कृत छाया
माहनकुलसंभूतः
आसीद् विप्रो महायशाः । यायायी यमयज्ञे जयघोष इति नामतः ।।
इन्द्रियग्रामनिग्राही
मार्गगामी महामुनिः।
ग्रामानुग्रामं रीयमाणः प्राप्तो वाराणसीं पुरीम् ।।
वाराणस्या बहि: उद्याने मनोरमे । प्रायुके शब्यासंस्तारे तत्र वासमुपागतः ।। अथ तस्मिन्नेव काले पुर्यां तत्र माहनः । विजयघोष इति नाम्ना यज्ञं यजति वेदवित् ।।
अथ स तत्रानगारः मासक्षपणपारणे । विजयघोषस्य यज्ञे भिक्षार्थमुपस्थितः ।।
समुपस्थितं तत्र सन्तं याजकः प्रतिषेधयति ।
न खलु दास्यामि तुभ्यं भिक्षां भिक्षो ! याचस्वान्यतः ॥
ये च वेदविदो विप्राः यज्ञार्थाश्च ये द्विजाः । ज्योतिषांगविदो ये च ये च धर्माणां पारगाः ।। ये समर्थाः समुद्धर्तुं परमात्मानमेव च । तेभ्यो ऽन्नमिदं देयं भो भिक्षो ! सर्वकामितम् ।।
हिन्दी अनुवाद
ब्राह्मण कुल में उत्पन्न एक महान् यशस्वी विप्र' था । वह यजनशील था, यमयज्ञ' (जीव-संहारक यज्ञ) में लगा रहता था । उसका नाम था जयघोष ।
वह (अहिंसा धर्म में प्रतिबुद्ध होकर) इन्द्रिय-समूह का निग्रह करने वाला मार्गगामी महामुनि हो गया । एक गांव से दूसरे गांव जाता हुआ वह वाराणसी पुरी पहुंचा।
वाराणसी के बाहर मनोरम उद्यान में प्रासुक शय्या और बिछौना लेकर वहां रहा।
उसी समय उस पुरी में वेदों को जानने वाला विजयघोष नाम का ब्राह्मण यज्ञ करता था।
वह जयघोष मुनि एक मास की तपस्या का पारणा करने के लिए विजयघोष के यज्ञ में भिक्षा लेने को उपस्थित हुआ ।
यज्ञकर्त्ता ने वहां उपस्थित हुए मुनि को निषेध की भाषा में कहा- “भिक्षो ! तुम्हें भिक्षा नहीं दूंगा, और कहीं याचना करो।"
"हे भिक्षो! यह सबके द्वारा अभिलाषित भोजन उन्हीं को देना है जो वेदों को जानने वाले विप्र हैं, यज्ञ के लिए जो द्विज हैं, जो ज्योतिष आदि वेद के छहों अंगों को जानने वाले हैं, जो धर्म-शास्त्रों के पारगामी हैं, जो अपना और पराया उद्धार करने में समर्थ हैं।"
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org