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केशि गौतमीय
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को समझना और उसका पालन करना अत्यन्त दुष्कर होता है हूं, मैने मुनिवेश धारण किया है। क्योंकि वे अपने ही तर्कजाल में उलझे रहते हैं।' २१. (श्लोक ३३)
उज्जुपन्ना ऋजु और प्राज्ञ । मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के मुनि 'ऋजु -प्राज्ञ' होते हैं। वे स्वभावतः सरल, सुबोध्य और आचार-प्रवण होते हैं।
प्रस्तुत प्रकरण में ऋजु, वक्र और जड़ का प्रयोग सापेक्ष है। इसमें युगीन मनोदशा का चित्रण है। जड़ के संदर्भ दो है- (१) अव्युत्पन्न व्यक्ति को समझाने में कठिनाई होती है, इसलिए उसे जड़ कहा जा सकता है। (२) अतिव्युत्पन्न व्यक्ति अपने तर्कजाल में उलझा रहता है, इसलिए उसे समझाना भी कठिन होता है।
प्राज्ञ ज्ञानी भी होता है और तर्क से परे सत्य है-इसे स्वीकार करने वाला भी होता है। इसलिए वह सुबोध्य होता है ।
ऋषभ का काल, मध्यवर्ती तीर्थंकरों का काल और महावीर का काल- - इन तीनों काल संधियों में मनुष्य की जो चिन्तनधारा रही उसका निदर्शन इस सूत्र में उपलब्ध है।
स्थानाङ्ग में इस स्थिति का चित्रण दुर्गम और सुगम शब्द के द्वारा किया गया है। वहां कहा है कि प्रथम तथा अन्तिम तीर्थंकर के शासन में पांच स्थान दुर्गम होते हैं(१) धर्म-तत्त्व का आख्यान करना ।
(२) तत्त्व का अपेक्षा की दृष्टि से विभाग करना । (३) तत्त्व का युक्तिपूर्वक निदर्शन करना ।
(४) उत्पन्न परीषहों को सहन करना ।
(१) धर्म-तत्त्व का आख्यान करना । (२) तत्त्व का अपेक्षा दृष्टि से विभाग करना । (३) तत्त्व का युक्तिपूर्वक निदर्शन करना ।
(४) उत्पन्न परीषहों को सहन करना । (५) धर्म का आचरण करना।
२०. 'मैं साधु हूं' ऐसा ध्यान आते रहना (गहणत्यं)
यह शब्द विशेष विमर्शणीय है । ग्रहण का अर्थ है--- ज्ञान । गहणत्थं — अर्थात् ज्ञान के लिए संयम यात्रा में चलते-चलते कभी परिस्थितिवश मुनि के मन में उच्चावचभाव आ जाए, चित्त की विप्लुति हो जाए तो उसको यह भान हो कि मैं मुनि
१. बृहद्वृत्ति, पत्र ५०२ 'वक्कजड्डा य' त्ति, वक्राश्च वक्रबोधतया जडाश्च तत एव स्वकानेककुविकल्पतो विवक्षितार्थप्रतिपत्त्यक्षमतया
वक्रजडाः ।
२. वही, पत्र ५०२ : 'ऋजुप्रज्ञा:' ऋजवश्च ते प्रकर्षेण जानन्तीति प्रज्ञाश्च सुखेनैव विवक्षितमर्थं ग्राहयितुं शक्यन्त इति ऋजुप्रज्ञाः ।
३. ठाणं ५।३२ ।
४. ठाणं, ५।३३।
अध्ययन २३ : श्लोक ३३-४५ टि० २०-२४
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प्रस्तुत श्लोक में वेश की गौणता का प्रतिपादन किया गया है । व्यवहार नय के अनुसार वेश की उपयोगिता पूर्व श्लोक में प्रदर्शित है। निश्चय नय के अनुसार मुक्ति का साधन ज्ञान, दर्शन और चारित्र है, वेश नहीं है । वृत्तिकार ने लिखा है-भरत आदि वेश के बिना ही केवली बन गए। २२. यथाज्ञात उपाय से (जहानायं )
(५) धर्म का आचरण करना।
मध्यवर्ती तीर्थङ्करों के शासन में पांच स्थान सुगम होते कुमार-श्रमण केशी ने जानना चाहा कि आप 'लघुभूतविहार'
वायु की भांति अप्रतिबद्ध विहार कैसे करते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में गौतम ने कहा— राग-द्वेष और स्नेह—ये पाश हैं। अप्रतिबद्ध विहारी इन पाशों से सहज ही बच जाता है। इस संदर्भ में दशवेकालिक चूलिया का यह श्लोक मननीय है
वृत्तिकार ने इसका संस्कृतरूप 'यथान्यायं' देकर इसका अर्थ-यथोक्तनीति का अतिक्रमण किया है। इसका संस्कृतरूप 'यथाज्ञातं ' भी हो सकता है। तात्पर्य की दृष्टि से यह अधिक प्रासंगिक है।
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छत्तीसवें श्लोक में दस को जीतने की बात कही गई है। प्रस्तुत श्लोक के अनुसार वे दस ये हैं- एक आत्मा, चार कषाय और पांच इंद्रियां । ये अजित अवस्था में शत्रु होते हैं। इनको जीतने वाला सब शत्रुओं को जीत लेता है। वृत्तिकार ने आत्मा के दो अर्थ किए हैं—जीव और चित्त। यहां चित्त अर्थ प्रासंगिक है। इसका तात्पर्यार्थ है-निषेधात्मक भाव वाली आत्मा शत्रु होती है ।
२३. ( श्लोक ४० )
प्रस्तुत श्लोक के प्रश्न की पृष्ठभूमि यह है कि गृहस्थ गृहवास के पाश से बद्ध रहते हैं और अनेक तपस्वी, परिव्राजक भी आश्रम में निवास करके ही साधना करते हैं।
न पडिन्नवेज्जा, सयणासणाई, सेज्जं निसेज्जं तह भत्तपाणं । गामे कुले वा नगरे व देसे, ममत्तभावं न कहिं चि कुज्जा ।। ( चूलिका २।८)
२४. उपायों से (उवायओ)
वृत्ति में उपाय का अर्थ- सद्भूत भावना का अभ्यास किया है। पाश को छिन्न करने के लिए पृथक्-पृथक् भावनाओं का दीर्घकालीन अभ्यास करना होता है। उदाहरणस्वरूप- राग
५. बृहद्वृत्ति, पत्र ५०३ : ग्रहणं ज्ञानं तदर्थं च कथंचिद् चित्तविप्लवोत्पत्तावपि गृह्णातु —यथाऽहं व्रतीत्येतदर्थ ।
६. वही, पत्र ५०४ ज्ञानाद्येव मुक्तिसाधनं न तु लिंगमिति श्रूयते हि भरतादीनां लिंग विनाऽपि केवलज्ञानोत्पत्तिः, निश्चये इति निश्चयनये विचायें, व्यवहारनये तु लिंगस्यापि कथंचिन् मुक्तिसद्भूतहेतुतेष्यत एव। ७. वही, पत्र ५०५ यथान्यायं यथोक्तनीत्यनतिक्रमेण ।
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वही, पत्र ५०४ : आत्मेति-जीवश्चित्तं वा ।
६. वही, पत्र ५०५ उपायतः सद्भूतभावनाऽभ्यासात् ।
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