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उत्तरज्झयणाणि
अध्ययन २४ :श्लोक १७-२५
१७.अणावायमसंलोए
परस्सणुवघाइए। समे अज्झुसिरे यावि अचिरकालकयंमि य।।
३९२ अनापातेऽसंलोके परस्याऽनुपघातिके। समेऽशुषिरे चापि अचिरकालकृते च।।
जो स्थण्डिल अनापात-असंलोक, पर के लिए अनुपघातकारी, सम, अशुषिर (पोल या दरार रहित) कुछ समय पहले ही निर्जीव बना हुआ
१८. वित्थिण्णे दूरमोगाढे
नासन्ने बिलवज्जिए। तसपाणबीयरहिए उच्चाराईणि वोसिरे।।
विस्तीर्णे दूरमवगाढे नासन्ने बिलवर्जिते। त्रसप्राणबीजरहिते उच्चारादीनि व्युत्सृजेत् ।।
कम से कम एक हाथ विस्तृत तथा नीचे से चार अंगुल की निर्जीव परत वाला, गांव आदि से दूर, बिल रहित और त्रस प्राणी तथा बीजों से रहित हो-उसमें उच्चार आदि का उत्सर्ग करे।"
ये पांच समितियां संक्षेप में कही गई हैं। यहां से क्रमशः तीन गुप्तियां कहूंगा।
१६. एयाओ पंच समिईओ
समासेण वियाहिया। एत्तो य तओ गुत्तीओ वोच्छामि अणुपुव्वसो।।
एताः पंचसमितयः समासेन व्याख्याताः। इतश्च तिस्मे गुप्ती: वक्ष्याम्यनुपूर्वशः।।
२०.सच्चा तहेव मोसा य
सच्चामोसा तहेव य। चउत्थी असच्चमोसा मणगुत्ती चउव्विहा ।।
सत्या तथैव मृषा च सत्यामृषा तथैव च। चतुर्थ्यसत्यामृषा मनोगुप्तिश्चतुर्विधा ।।
सत्या, मृषा, सत्यामृषा और चौथी असत्यामृषाइस प्रकार मनो-गुप्ति के चार प्रकार हैं।
२१.संरंभसमारंभे
आरंभे य तहेव य। मणं पवत्तमाणं तु नियत्तेज्ज जयं जई ।।
संरम्भसमारम्भे आरम्भे च तथैव च। मनः प्रवर्तमानं तु निवर्तयेद् यतं यतिः।।
यति संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवर्तमान मन का संयमपूर्वक निवर्तन करे।
सत्या, मृषा, सत्यामृषा और चौथी असत्यामृषाइस प्रकार वचन-गुप्ति के चार प्रकार हैं।
२२.सच्चा तहेव मोसा य
सच्चामोसा तहेव य। चउत्थी असच्चमोसा वइगुत्ती चउव्विहा।।
सत्या तथैव मृषा च सत्यामृषा तथैव च। चतुर्थ्यसत्यामृषा वचोगुप्तिश्चतुर्विधा।।
२३.संरंभसमारंभे
आरंभे य तहेव य। वयं पवत्तमाणं तु नियत्तेज्ज जयं जई।।
संरम्भसमारम्भे आरम्भे च तथैव च। वचः प्रवर्तमानं तु निवर्तयेद् यतं यतिः।।
यति संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवर्तमान वचन का संयमपूर्वक निवर्तन करे।
खड़ा होने, बैठने, लेटने, उल्लंघन-प्रलंघन करने और इन्द्रियों के व्यापार में
२४.ठाणे निसीयणे चेव
तहेव य तुयट्टणे। उल्लंघणपल्लंघणे इंदियाण य झुंजणे।।
स्थाने निषदने चैव तथैव च त्चगवर्तने। उल्लङ्घनप्रलयने इन्द्रियाणां च योजने।।
संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवर्तमान काया या यति संयमपूर्वक निवर्तन करे।२
२५.संरंभसामरंभे
आरंभम्मि तहेव य। कायं पवत्तमाणं तु नियत्तेज्ज जयं जई।।
संरम्भसमारम्भे आरम्भे तथैव च। कायं प्रवर्तमानं तु निवर्तयेद् यतं यतिः।।
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