________________
टिप्पण
१. आठ प्रवचन माताएं (अट्ठ पवयणमायाओ)
'मायाओ' शब्द के 'माता' और 'मातरः 'ये दो संस्कृत रूप किए जा सकते हैं। पांच समितियों और तीन गुप्तियोंइन आठों में सारा प्रवचन समा जाता है, इसलिए इन्हें 'प्रवचन-माता' कहा जाता है। इन आठों से प्रवचन का प्रसव होता है, इसलिए इन्हें 'प्रवचन-माता' कहा जाता है। पहले में 'समाने' का अर्थ है दूसरे में 'मां' का। इसी अध्ययन के तीसरे श्लोक में 'समाने' के अर्थ में प्रयोग है। 'मां' का अर्थ वृत्ति में ही मिलता है।
भगवती आराधना के अनुसार समिति और गुप्ति ज्ञान, दर्शन और चारित्र की वैसी ही रक्षा करती है जैसे माता अपने पुत्र की । इसलिए समिति गुप्ति को माता कहा गया है। २. आठ समितियां (अट्ठ समिईओ)
अध्ययन २४ : प्रवचन-माता
प्रस्तुत श्लोक में 'समितियां' आठ बतलाई गई हैं। प्रश्न होता है कि समितियां पांच ही हैं तो यहां आठ का कथन क्यों ?
टीकाकार ने इसका समाधान करते हुए कहा है कि 'गुप्तियां' केवल निवृत्त्यात्मक ही नहीं होती, किन्तु प्रवृत्त्यात्मक भी होती हैं। इसी अपेक्षा से उन्हें समिति कहा गया है। जो समित होता है वह नियमतः गुप्त होता है और जो गुप्त होता है वह समित होता भी है और नहीं भी ।
३. (दुवालसंगं... मायं जत्थ उपवयणं)
आठ प्रवचन माताओं में जिनभाषित द्वादशांगी समाई हुई है । वृत्तिकार ने इसकी संगति इस प्रकार की है
9.
४.
★ ईर्या समिति में प्राणातिपातविरमण व्रत का अवतरण होता है। शेष सारे व्रत उसकी रक्षा के लिए हैं।
बृहद्वृत्ति, पत्र ५१३-५१४ ईर्यासमित्यादयो माता अभिधीयन्ते 'मातम्' - अन्तरवस्थितं 'खलु' निश्चितं 'प्रवचनं' द्वादशाङ्गं 'यत्र' इति यासु । तदेवं निर्युक्तिकृता मातशब्दो निक्षिप्तः, यदा तु 'माय' त्ति पदस्य मातर इति-संस्कारस्तदा द्रव्यमातरो जनन्यो भावमातरस्तु समितयः, एताभ्यः प्रवचनप्रसवात्, उक्तं हि 'एया पवयणमाया दुवालसंगं पसूयातो' त्ति ।
२. उत्तरज्झयणाणि २४३: दुसावसंगं जिणक्खायं, मायं जत्थ उ पवयणं ।
३.
भगवती आराधना, गाथा १२०५ :
एदाओ अट्ठपवयणमादाओ णाणदंसणचरित्तं ।
रक्खति सदा मुणिओ माया पुत्तं व पयदाओ ।।
बृहद्वृत्ति, पत्र ५१४ : गुप्तीनामपि 'प्रवचनविधिना मार्गव्यवस्थापनमुन्मार्गगमननिवारणं गुप्ति' रिति वचनात्कथंचित्सच्चेष्टात्मकत्वात्समितिशब्दवाच्यत्वमस्तीत्येवमुपन्यासः, यत्तु भेदेनोपादानं तत्समितीनां
Jain Education International
इसलिए उनका भी इसमें अन्तर्भाव हो जाता है। ★ भाषा समिति में सावद्यवचन का परिहार होता है। वह निरवद्यवचन रूप होती है। इसमें सारा वचनात्मकश्रुत गृहीत हो जाता है। द्वादशांग प्रवचन उससे बहिर्भूत नहीं है।
वृत्तिकार ने वैकल्पिक रूप से यह भी माना है कि पांच समितियां और तीन गुप्तियां चारित्र रूप हैं। ज्ञान, दर्शन और चारित्र का अविनाभावी संबंध है। इन तीनों के अतिरिक्त द्वादशांगी कुछ है नहीं। इसलिए इन आठों में सारा प्रवचन समाया हुआ है । "
४. युग मात्र (गाड़ी के जुए जितनी ) ( जुगमित्तं)
'युग' का अर्थ है शरीर या गाड़ी का जुआ । चलते समय साधु की दृष्टि युग मात्र होनी चाहिए अर्थात् शरीर या गाड़ी के जुए जितनी लम्बी होनी चाहिए। जुआ जैसे प्रारंभ में संकड़ा और आगे से विस्तृत होता है वैसे ही साधु की दृष्टि होनी चाहिए। युग मात्र का दूसरा अर्थ है 'चार हाथ प्रमाण' । इसका तात्पर्य है कि मुनि चार हाथ प्रमाण भूमि को देखता हुआ चले विशुद्धिमार्ग में भी भिक्षु को युगमात्रदर्शी कहा है – “इसलिए लोलुप स्वभाव को त्याग, आंखें नीची किए, युगमात्रदर्शी — चार हाथ तक देखनेवाला हो । धीर (भिक्षु ) संसार में इच्छानुरूप विचरने का इच्छुक सपदानचारी बने। आयुर्वेद के ग्रन्थों में भी युगमात्र भूमि को देखकर चलने का विधान है। मिलाइए - दसवे आलियं, ५1१1३ का टिप्पण ।
कहीं-कहीं 'युग' के स्थान पर 'कुक्कुट के उड़ान की दूरी जितनी भूमि पर दृष्टि डालकर चलने' की बात मिलती
५.
६.
७.
प्रवीचाररूपत्वेन गुप्तीनां प्रवीचाराप्रवीचारात्मकत्वेनान्योऽन्यं कथंचिदभेदात्,
तथा चागमः
"समिओ णियमा गुत्तो गुत्तो समियत्तणंमि भइयव्वो । कुसलवइमुदीरंतो जं बइगुत्तोऽवि समिओऽवि ।।" बृहद्वृत्ति, पत्र ५१५ ।
दशवैकालिक, ५1१1३, जिनदास चूर्णि पृ० १६८ ।
बृहद्वृत्ति, पत्र ५१५
प्रेक्षेत ।
८. विशुद्धिमार्ग १, २, पृ० ६८ :
लोलुप्पचारंच पहाय तस्मा ओक्खित्तचक्खू युगमत्तदस्सी । आकङ्खमानो भुवि सेरिचारं चरेय्य धीरो सपदानचारं ।। ६. अष्टांगहृदय, सूत्रस्थान २।३२ विचरेद् युगमात्रदृक् ।
For Private & Personal Use Only
'युगमात्रं च' चतुर्हस्तप्रमाणं प्रस्तावात्क्षेत्रं
www.jainelibrary.org