________________
आमुख
इस अध्ययन में अन्धक-कुल के नेता समुद्रविजय के पश्चिम-वय में दीक्षित हुए थे। उन्होंने भी मोक्ष प्राप्त कर पुत्र रथनेमि का वृत्तान्त है, इसलिए इसका नाम 'रहनेमिज्ज'- लिया। यह परमार्थ है।" अरिष्टनेमि ने नियति की प्रबलता 'रथनेमीय' है।
जान केशव की बात स्वीकार कर ली। केशव ने समुद्रविजय सोरियपुर नाम का नगर था। वहां वृष्णि-कुल के वसुदेव को सारी बात कही। वे अत्यन्त प्रसन्न हुए और योग्य कन्या राज्य करते थे। उनके दो रानियां थीं-रोहिणी और देवकी। की गवेषणा करने लगे। भोज-कुल के राजन्य उग्रसेन की पुत्री रोहिणी के एक पुत्र था। उसका नाम 'बलराम' था और देवकी राजीमती को अरिष्टनेमि के योग्य समझ विवाह की बातचीत के पुत्र का नाम 'केशव' था।
की। उग्रसेन ने इसे अनुग्रह मान स्वीकार कर लिया। दोनों उसी नगर में अन्धक-कुल के नेता समुद्रविजय राज्य कुलों में वर्धापन हुआ। विवाह से पूर्व समस्त कार्य सम्पन्न करते थे। उनकी पटरानी का नाम शिवा था। उसके चार पुत्र हुए। विवाह का दिन आया राजीमती अलंकृत हुई। कुमार भी थे—अरिष्टनेमि, रथनेमि, सत्यनेमि और दृढ़नेमि । अरिष्टनेमि अलंकृत हो मत्त हाथी पर आरूढ़ हुए। सभी दसार एकत्रित बाईसवें तीर्थकर हुए और रथनेमि तथा सत्यनेमि प्रत्येक-बृद्ध हुए। बाजे बजने लगे। मंगल दीप जलाए गए। वर-यात्रा हुए।
प्रारम्भ हुई। हजारों लोगों ने उसे देखा। वह विवाह-मण्डप के उस समय सोरियपुर में द्वैध-राज्य था। अन्धक और पास आई। राजीमती ने दूर से अपने भावी पति को देखा। वह वृष्णि-ये दो राजनैतिक दल वहां का शासन चलाते थे। अत्यन्त प्रसन्न हुई। वसुदेव वृष्णियों के नेता थे और समुद्रविजय अन्धकों के। इस उसी समय अरिष्टनेमि के कानों में करुण शब्द पड़े। प्रकार की राज्य-प्रणाली को ‘विरुद्ध-राज्य' कहा जाता था। उन्होंने सारथी से पूछा-“यह शब्द क्या है ?” सारथी ने
कार्तिक कृष्णा द्वादशी को अरिष्टनेमि का जीव शिवा कहा-“देव! यह करुण शब्द पशुओं का है। वे आपके विवाह रानी के गर्भ में आया। माता ने १४ स्वप्न देखे। श्रावण शुक्ला में सम्मिलित होने वाले व्यक्तियों के लिए भोज्य बनेंगे। मरण-भय ५ को रानी ने पुत्र-रत्न को जन्म दिया। स्वप्न में रिष्टरत्नमय से वे आक्रन्दन कर रहे हैं।” अरिष्टनेमि ने कहा-“यह कैसा नेमि देखे जाने के कारण पुत्र का नाम अरिष्टनेमि रखा। वे आनन्द ! जहां हजारों मूक और दीन पशुओं का वध किया आठ वर्ष के हुए। कृष्ण ने कंस का वध कर डाला। महाराज जाता है। ऐसे विवाह से क्या जो संसार के परिभ्रमण का हेतु जरासंध यादवों पर कुपित हो गया। मरने के भय से सभी बनता है !” हाथी को अपने निवास की ओर मोड़ दिया। यादव पश्चिमी समुद्र तट पर चले गए। वहां द्वारवती नगरी में अरिष्टनेमि को मुड़ते देख राजीमती मूञ्छित हो भूमि पर गिर सुख से रहने लगे। कुछ समय के बाद वलराम और कृष्ण ने पड़ी। स्वजनों ने ठण्डा जल छिड़का, पंखा झला। मूर्छा दूर जरासंध को मार डाला और वे राजा बन गए। अरिष्टनेमि हुई। चैतन्य प्राप्त कर वह विलाप करने लगे। अरिष्टनेमि ने युवा बने । वे इन्द्रिय-विषयों से पराङ्मुख रहने लगे। एक बार अपने माता-पिता के पास जा प्रव्रज्या के लिए आज्ञा मांगी। वे समद्रविजय ने केशव से कहा—“ऐसा कोई उपक्रम किया जाए तीन सौ वर्ष तक अगारवास में रह श्रावण शुक्ला ५ को जिससे कि अरिष्टनेमि विषयों में प्रवृत्त हो सके।" केशव ने सहस्त्रवन उद्यान के बेले की तपस्या में दीक्षित हो गए। रुक्मणी, सत्यभामा आदि को इस ओर प्रयत्न करने के लिए अब रथनेमि राजीमती के पास आने-जाने लगे। उन्होंने कहा। अनेक प्रयत्न किए गए। अनेक प्रलोभनों से उन्हें कहा-“देवी ! विषाद मत करो। अरिष्टनेमि वीतराग हैं। वे विचलित करने का प्रयास किया गया। पर वे अपने लक्ष्य पर विषयानुबन्ध नहीं करते। तुम मुझे स्वीकार करो। मैं जीवन स्थिर रहे। एक वार केशव ने कहा-“कुमार! ऋषभ आदि भर तुम्हारी आज्ञा मानूंगा।" भगवती राजीमती का मन काम-भोगों अनेक तीर्थकर भी गृहस्थाश्रम के भोगों को भोग कर, से निर्विण्ण हो चुका था। उसे रथनेमि की प्रार्थना अयुक्त लगी। १. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ४४३-४४५ :
सोरियपुरंमि नयरे, आसी राया समुद्दविजओत्ति । तस्सासि अग्गमहिसी, सिवत्ति देवी अणुज्जंगी।। तेसिं पुत्ता चउरो, अरिट्ठनेमी तहेव रहनेभी। तइओ अ सच्चनेमी, चउत्थओ होई दढनेमि।। जो सो अरिट्ठनेमी, बावीसइमो अहेसि सो अरिहा। रहनेमि सच्चनेमी, एए पत्तेयबुद्धा उ।।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org