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इस अध्ययन में पार्थ्यापत्यीय कुमार- श्रमण केशी और भगवान् महावीर के प्रमुख शिष्य गौतम का संवाद है। इसलिए इसका नाम 'केसिगोयमिज्जं' 'केशि गौतमीय' है।'
भगवान् पार्श्वनाथ जैन परम्परा के तेईसवें तीर्थंकर थे और उनका शासन काल भगवान् महावीर से ढाई शताब्दी पूर्व का था। भगवान् महावीर के शासन काल में अनेक पार्श्वपत्यीय श्रमण तथा श्रावक विद्यमान थे। पार्श्वनाथ की परम्परा के श्रमणों तथा श्रावकों का भगवान् महावीर के शिष्यों से आलाप-संलाप और मिलन हुआ । उसका उल्लेख आगमों तथा व्याख्या -ग्रन्थों में मिलता है। भगवान् महावीर के माता-पिता पार्श्वनाथ की परम्परा को मानने वाले श्रमणोपासक थे।
आमुख
भगवती सूत्र में 'कालास्यवैशिक पुत्र' पार्थ्यापत्यीय श्रमण का उल्लेख है। वे अनेक निर्ग्रन्थ स्थविरों से मिलते हैं। उनसे तात्विक चर्चा कर समाधान पाते हैं और अपनी पूर्व परम्परा का विसर्जन कर भगवान् महावीर की परम्परा को स्वीकार कर लेते हैं। *
एक बार भगवान् महावीर राजगृह में समवसृत थे। वहां भगवान् पार्श्व की परम्परा के कई स्थविर आए और भगवान् से तात्विक चर्चा की। उनका मूल प्रश्न यह था - " इस परिमित लोक में अनन्त रात-दिन या परिमित रात-दिन की बात कैसे संगत हो सकती है ?" भगवान् महावीर उन्हें समाधान देते हैं और वे सभी स्थवरि चातुर्याम धर्म से पंचयाम-धर्म में दीक्षित हो जाते हैं।"
भगवान् महावीर वाणिज्यग्राम में थे। पार्श्वपत्यीय श्रमण गांगेय भगवान् के पास आया। उसने जीवों की उत्पत्ति और च्युति के बारे में प्रश्न किए। उसे पूरा समाधान मिला। उसने भगवान् की सर्वज्ञता पर विश्वास किया और वह उनका शिष्य बन गया।"
उदक पेढाल पार्श्वनाथ की परम्परा में दीक्षित हुआ था। एक बार जब गणधर गौतम नालन्दा में स्थित थे तब वह उनके पास गया, चर्चा की और समाधान पा उनका शिष्य हो
गया।
9.
उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा ४५१ : गोअम-केसीओ आ, संवायसमुट्टियं तु जम्हेयं । तो केसिगोयमिज्ज, अज्झयण होइ नायव्वं ।। आवश्यक निर्युक्ति, मलयगिरिवत्ति पत्र २४१ : पासजिणाओ य होइ वीरजिणो ।
अड्डाइज्जसएहिं गएहिं चरिमो समुण्पन्नो ।।
३. आयारचूला १५।२५ समणस्स णं भगवओ महावीरस्स अम्मापियरो पासावच्चिज्जा समणोवासगा यावि होत्था ।
२.
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भगवान् महावीर कालाय सन्निवेश से विहार कर पत्रालय ग्राम से होते हुए कुमार सन्निवेश में आए और चम्पक रमणीय उद्यान में ठहरे। उसी सन्निवेश में पार्श्वापत्यीय स्थविर मुनिचन्द्र अपने शिष्य परिवार के साथ कृपनक नामक कुंभकार की शाला में ठहरे हुए थे। वे जिनकल्प प्रतिमा की साधना कर रहे थे। वे अपने शिष्य को गण का भार दे स्वयं 'सत्त्व-भावना' में अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करते थे।
गोशाला भगवान् के साथ था। उसने गांव में घूमते-घूमते पार्श्वपत्यीय स्थविर मुनिचन्द्र को देखा। उनके पास जा उसने पूछा- तुम कौन हो ?
उन्होंने कहा- हम श्रमण निर्ग्रन्थ हैं।
गोशाला ने कहा - अहो ! तुम कैसे श्रमण निर्ग्रन्थ ? निर्ग्रन्थ होते हुए भी तुम अपने पास इतने ग्रन्थ - परिग्रह क्यों रखते हो ?
इतना कह उसने भगवान् की बात उनसे कही और पूछा- क्या तुम्हारे संघ में भी ऐसा कोई महात्मा है ?
मुनिचन्द्र ने कहा— जैसे तुम हो वैसे ही तुम्हारे आचार्य
होंगे।
इस पर गोशाला कुपित हो गया। उसने क्रोधाग्नि से जलते हुए कहा -- यदि मेरे धर्माचार्य के तप का प्रभाव है तो तुम्हारा यह प्रतिश्रय - आश्रय जल कर भस्म हो जाए ।
मुनिचन्द्र ने कहा – तुम्हारे कहने मात्र से हम नहीं जलेंगे। गोशाला भगवान् के पास आया और बोला- भगवन् ! आज मैने सारम्भ, सपरिग्रही साधुओं को देखा है।
भगवान् ने कहा- वे पार्श्वनाथ की परम्परा के साधु हैं 1
रात का समय हुआ । कुंभकार कूपनक विकाल वेला के बाहर से अपने घर पहुंचा। उसने एक ओर एक व्यक्ति को ध्यानस्थ खड़े देखा और यह सोच कर कि 'यह चोर है', उसके गले को पकड़ा। स्थविर मुनिचन्द्र का गला घुटने लगा । असह्य वेदना हो रही थी पर वे अकम्प रहे। ध्यान की लीनता बढ़ी। वे केवली हुए और समस्त कर्मों को क्षीण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो गए।
४. भगवई, १४२३-४३३। ५. वही ५।२५४-२५७ ।
६. वही, ६।१२०-१३४ ।
७. सूयगडो, दूसरे श्रुतस्कंध का सातवां अध्ययन ।
८.
आवश्यक निर्युक्ति, वृत्ति पत्र, २७८ ।
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