________________
केशि-गौतमीय
३७१
अध्ययन २३ : आमुख
बढ़ाया।
तदनन्तर वे अचेल बने और जीवन भर अचेल रहे। किन्तु भगवान् महावीर ने सचेल और अचेल दोनों परम्पराओं उन्होंने सचेल और अचेल किसी एक को एकांगी मान्यता नहीं के साधकों को मान्यता दी और उनकी साधना के लिए दी। दोनों के अस्तित्व को स्वीकार कर उन्होंने संघ को विस्तार निश्चित पथ निर्दिष्ट किया। दोनों परम्पराएं एक ही छत्र-छाया दिया। में पनपीं, फूली-फलीं और उनमें कभी संघट्टन नहीं हुआ। इस अध्ययन में आत्म-विजय और मनोनुशासन के भगवान् प्रारम्भ में सचेल थे। एक देवदूष्य धारण किए हुए थे। उपायों का सुन्दर निरूपण है।
मूलाचार, ७।३६-३८ : बानीसं तित्थयरा, सामाइयसंजम उवदिसंति। छेदुवठावणिय पुण, भयवं उसहो य वीरो य।। आचक्खिदु विभजिद्, विष्णातुं चावि सुहदर होदि। एदेण कारणेण दु, महव्वदा पंच पण्णता।।। आदीए दुविसोधणे, णिपणे तह सुट्टु दुरणुपाले य। पुरिमा य पच्छिमा वि हु, कपाकप्पं ण जाणंति ।।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org