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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन २३ : आमुख
एक बार भगवान् महावीर 'चोराग' सन्निवेश में गए। से भर गए। आपस में ऊहापोह करते हुए वे अपने-अपने गोशाला साथ था। वहां के अधिकारियों ने इन्हें गुप्तचर समझ आचार्य के पास आए। उनसे पारस्परिक भेदों की चर्चा की। पकड़ लिया। गोशाले को एक रस्सी से बांध कर कुएं से लटका कुमार-श्रमण केशी और गणधर गौतम विशिष्ट ज्ञानी दिया। वहां उत्पल की दो बहनें-शोभा और जयन्ति रहती थे। वे सब कुछ जानते थे। परन्तु अपने शिष्यों के समाधान थीं। वे दोनों दीक्षित होने में असमर्थ थीं, अतः पार्थापत्यीय के लिए वे कुछ व्यावहारिक प्रयत्न करना चाहते थे। कुमार-श्रमण परिव्राजिकाओं के रूप में रहती थीं। उन्होंने लोगों को महावीर केशी पार्श्व की परम्परा के आचार्य होने के कारण गौतम से के विषय में यथार्थ जानकारी दी। अधिकारियों ने महावीर तथा ज्येष्ट थे, इसलिए गौतम अपने शिष्यों को साथ ले 'तिन्दुक' गोशाला को बन्धन-मुक्त कर दिया।'
उद्यान में गये। आचार्य केशी ने आसन आदि दे उनका सत्कार एक बार भगवान् 'तम्बाक' ग्राम में गए। वहां पार्खापत्यीय किया। कई अन्य मतावलम्बी संन्यासी तथा उनके उपासक भी स्थविर नन्दीसेण अपने बहुश्रुत मुनियों के बहुत बड़े परिवार आए। आचार्य केशी तथा गणधर गौतम में संवाद हुआ। के साथ आए हुए थे। आचार्य नन्दीसेण जिनकल्प-प्रतिमा में प्रश्नोत्तर चले। उनमें चातुर्याम और पंचयाम धर्म तथा सचेलकत्व स्थित थे। गोशाले ने उन्हें देखा और उनका तिरस्कार किया। और अचेलकत्व के प्रश्न मुख्य थे। गांव के अधिकारियों ने भी आचार्य को 'चर' समझकर पकड़ा आचार्य केशी ने गौतम से पूछा-भंते ! भगवान् पार्श्व
और भालों से आहत किया। असह्य वेदना को समभाव से ने चातुर्याम धर्म की प्ररूपणा की और भगवान् महावीर ने सहते हुए उन्हें केवलज्ञान हुआ। वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो गए। पंचयाम धर्म की। दोनों का लक्ष्य एक है। फिर यह भेद क्यों ?
एक बार भगवान् 'कूविय' सन्निवेश में गए। गोशाला क्या यह पार्थक्य संदेह उत्पन्न नहीं करता?" (श्लोक २३, २४)। साथ था। वहां के अधिकारियों ने दोनों को 'गुप्तचर' समझ गौतम ने कहा—भंते ! प्रथम तीर्थकर के श्रमण ऋजु-जड़, कर पकड़ लिया। वहां पार्वा पत्यीय परम्परा की दो अन्तिम तीर्थकर के वक्र-जड़ और मध्यवर्ती बाईस तीर्थकरों परिव्राजिकाओं—विजया और प्रगल्भा ने आकर उन्हें छुड़ाया। के श्रमण ऋजु-प्राज्ञ होते हैं। प्रथम तीर्थङ्कर के श्रमणों के
इस प्रकार पार्श्वनाथ की परम्परा के साधुओं की जानकारी लिए मुनि के आचार को यथावत् ग्रहण करना कठिन है, चरम देने वाले अनेक प्रसंग उपलब्ध होते हैं। मूल आगम-साहित्य में तीर्थडूकर के श्रमणों के लिए आचार का पालन करना कठिन अनेक स्थलों पर भगवान् महावीर के मुख से पार्श्व के लिए है और मध्यवर्ती तीर्थकरों के मुनि उसे यथावत् ग्रहण करते 'पुरुषादानीय' शब्द का प्रयोग हुआ है। यह आदर-सूचक शब्द हैं तथा सरलता से उसका पालन भी करते हैं। इन्हीं कारणों है।
से धर्म के ये दो भेद हुए हैं।” (श्लोक २५, २६, २७) . कुमार-श्रमण केशी भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के आचार्य केशी ने पुनः पूछा-“भंते ! एक ही प्रयोजन के चौथे पट्टधर थे। प्रथम पट्टधर आचार्य शुभदत्त हुए। उनके लिए अभिनिष्कमण करने वाले इन दोनों परम्पराओं के मुनियों उत्तराधिकारी आचार्य हरिदत्तसूरि थे, जिन्होंने वेदान्त-दर्शन के के वेश में यह विविधता क्यों है? एक सवस्त्र हैं और दूसरे प्रसिद्ध आचार्य 'लोहिय' से शास्त्रार्थ कर उनको ५०० शिष्यों अवस्त्र।" (श्लोक २६, ३०)। सहित दीक्षित किया। इन नव दीक्षित मुनियों ने सौराष्ट्र, तैलंग गौतम ने कहा--"भंते ! मोक्ष के निश्चित साधन तो आदि प्रान्तों में विहार कर जैन-शासन की प्रभावना की। ज्ञान, दर्शन और चारित्र हैं। वेश तो बाह्य उपकरण है। लोगों तीसरे पट्टधर आचार्य समुद्रसूरि थे। इनके काल में विदेशी को यह प्रतीत हो कि ये साधु हैं, इसलिए नाना प्रकार के नामक एक प्रचारक आचार्य ने उज्जैन नगरी में महाराजा उपकरणों की परिकल्पना की है। संयम-जीवन-यात्रा को जयसेन, उनकी रानी अनंगसुन्दरी और उनके राजकुमार निभाना और 'मैं साधु हूं'--ऐसा ध्यान आते रहना--वेश 'केशी' को दीक्षित किया। आगे चल कर मुनि केशी ने धारण के प्रयोजन हैं।" (श्लोक ३२, ३३) नास्तिक राजा परदेशी को समझाया और उसे जैन-धर्म में इन दो विषयों से यह आकलन किया जा सकता है कि स्थापित किया।
किस प्रकार भगवान् महावीर ने अपने संघ में परिष्कार, ___ एक बार कुमार श्रमण केशी ग्रामानुग्राम विहरण करते परिवर्द्धन और सम्वर्द्धन किया था। उन्होंने चार महाव्रतों की हुए 'श्रावस्ती' में आए और 'तिन्दुक' उद्यान में ठहरे। भगवान् परम्परा को बदल पांच महाव्रतों की स्थापना की, सचेल महावीर के शिष्य गणधर गौतम भी संयोगवश उसी नगर में परम्परा के स्थान पर अचेल परम्परा को मान्यता दी, सामायिक आए और 'कोष्टक' उद्यान में ठहरे। नगर में आते-जाते दोनों चारित्र के साथ-साथ छेदोपस्थापनीय चारित्र की प्ररूपणा की परम्पराओं के शिष्य एक दूसरे से मिले। दोनों के मन जिज्ञासा तथा समिति-गुप्ति का पृथक् निरूपण कर उनका महत्व १. आवश्यक नियुक्ति, वृत्ति पत्र, २७८, २७६।
५. नाभिनन्दोद्धार प्रबन्ध १३६ : २-३ वही, वृत्ति पत्र, २८२।
केशिनामा तद्-विनेयः, य: प्रदेशीनरेश्वरम्। ४. समरसिंह ; पृष्ठ ७५, ७६।
प्रबोध्य नास्तिकाद् धर्माद्, जैनधर्मेऽध्यरोपयत्।।
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