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केशि गौतमीय
८७. पंचमहव्वयधम्मं
पडिवज्जइ भावओ। पुरिमस्स पच्छिमंमी मग्गे तत्थ सुहावहे ।।
८. केसीगोयमओ निच्च
८८.
तम्मि आसि समागमे । सुयसीलसमुक्करिसो महत्वत्थविणिच्छओ ।।
८६. तोसिया परिसा सव्वा सम्मग्गं समुवट्टिया संथुया ते पसीयंतु भयवं केसिगोयमे ।।
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—त्ति बेमि ।
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पंचमहाव्रतधर्मं
प्रतिपद्यते भावतः । पूर्वस्य पश्चिमे मार्गे तत्र सुखावहे ।।
केशिगौतमयोर्नित्यं तस्मिन्नासीत् समागमे । श्रुतशीलसमुत्कर्षः
महार्थार्थविनिश्चयः ।।
तोषिता परिषत् सर्वा सन्मार्ग समुपस्थिता। संस्तुती ती प्रसीदताम् भगवन्तौ केशिगौतमौ ।
- इति ब्रवीमि ।
अध्ययन २३ : श्लोक ८७-८८
केशी स्वामी ने गौतम के पास भावपूर्वक पंच महाव्रत धर्म को स्वीकार किया। वे पूर्वमार्ग - भगवान् पार्श्व की परम्परा से पश्चिममार्ग — भगवान् महावीर की सुखावह परम्परा में प्रविष्ट हो गए। ३०
उस उद्यान में होने वाला केशी और गौतम का सतत मिलन श्रुत और शील का उत्कर्ष करने वाला और महान् प्रयोजन वाले अर्थों का विनिश्चय करने
वाला था ।
जिनकी गतिविधि से परिषद् को सन्तोष हुआ और वह सन्मार्ग पर उपस्थित हुई, वे परिषद् द्वारा प्रशंसित भगवान् केशी और गौतम प्रसन्न हों।
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- ऐसा मैं कहता हूं ।
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