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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन २२ : श्लोक ६-१८
अरिष्टनेमि को सर्व औषधियों के जल से नहलाया गया, कौतुक और मंगल किए गए, दिव्य वस्त्र-युगल" पहनाया गया और आभरणों से विभूषित किया गया। वासुदेव के मदवाले ज्येष्ठ गन्धहस्ती पर आरूढ़ अरिष्टनेमि सिर पर चूड़ामणि की भांति बहुत सुशोभित हुआ।
अरष्टिनेमि ऊंचे छत्र-चामरों से सुशोभित और दसार-चक्र से सर्वतः परिवृत था।
यथाक्रम सजाई हुई चतुरंगिनी सेना और वाद्यों के गगन-स्पर्शी दिव्यनाद
ऐसी उत्तम ऋद्धि और उत्तम द्युति के साथ वह वृष्णिपुङ्गव अपने भवन से चला।
६. सव्वोसहीहि एहविओ
कयकोउयमंगलो। दिव्वजुयलपरिहिओ
आभरणेहिं विभूसिओ।।। १०. मत्तं च गंधहत्थि
वासुदेवस्स जेट्टगं। आरूढो सोहए अहियं सिरे चूडामणी जहा।। ११. अह ऊसिएण छत्तेण
चामराहि य सोहिए। दसारचक्केण य सो
सव्वओ परिवारिओ।। १२. चउरंगिणीए सेनाए
रइयाए जहक्कमं। तुरियाण सन्निनाएण
दिव्वेण गगणं फुसे।। १३. एयारिसीए इड्डीए
जुईए उत्तिमाए य। नियगाओ भवणाओ
निज्जाओ वण्हिपुंगवो।। १४. अह सो तत्थ निजंतो
दिस्स पाणे भयदुए। वाडेहिं पंजरेहिं च
सन्निरुद्धे सुदुक्खिए।। १५.जीवियंतं तु संपत्ते
मंसट्ठा भक्खियब्वए। पासेत्ता से महापन्ने
सारहिं इणमब्बवी।। १६. कस्स अट्ठा इमे पाणा
एए सब्वे सुहेसिणो। वाडेहिं पंजरेहिं च
सन्निरुद्धा य अच्छहिं ?।। १७.अह सारही तओ भणइ
एए भद्दा उ पाणिणो। तुझं विवाहकजंमि
भोयावेउं बहुं जणं ।। १८. सोऊण तस्स वयणं
बहुपाणिविणासणं चिंतेइ से महापन्ने साणुक्कोसे जिएहि उ।।
सर्वौषधिभिः स्नापितः कृतकौतुकमंगलः। परिहितदिव्ययुगलः आभरणैर्विभूषितः।। मत्तं च गन्धहस्तिनं वासुदेवस्य ज्येष्ठकम्। आरूढ़ः शोभतेऽधिकं शिरसि चूडामणिर्यथा। अथोच्छ्रितेन छत्रेण चामराभ्यां च शोभितः दशारचक्रेण च स सर्वतः परिवारितः।। चतुरङ्गिण्या सेनया रचितया यथाक्रमम्। तूर्याणां सन्निनादेन दिव्येन गगनस्पृशा।। एतादृश्या ऋद्ध्या द्युत्या उत्तमया च। निजकात् भवनात् निर्यातो वृष्णिपुङ्गवः।। अथ स तत्र निर्यन् दृष्ट्वा प्रणान् भयदुतान्। वाटैः पञ्जरैश्च सन्निरुद्धान् सुदुःखितान् ।। जीवितान्तं तु सम्प्राप्तान् मांसार्थं भक्षयितव्यान्। दृष्ट्वा स महाप्रज्ञः सारथिमिदमब्रवीत्।। कस्यार्थादिमे प्राणा एते सर्वे सुखैषिणः। वाटैः पञ्जरैश्च सन्निरुद्धाश्च आसते?।। अथ सारथिस्ततो भणति एते भद्रास्तु प्राणिनः। तव विवाहकायें भोजयितुं बहुं जनम्।। श्रुत्वा तस्य वचनं बहुप्राणिविनाशनम्। चिन्तयति स महाप्रज्ञः सानुक्रोशो जीवेषु तु।।
वहां जाते हुए उसने भय से संत्रस्त, बाड़ों और पिंजरों में निरुद्ध, सुदुःखित प्राणियों को देखा।"
वे मरणासन्न दशा को प्राप्त थे और मांसाहार के लिए खाए जाने वाले थे। उन्हें देख कर महाप्रज्ञ" अरिष्टनेमि ने सारथि से इस प्रकार कहा--
“सुख की चाह रखने वाले ये२० सब प्राणी किसालए इन बाड़ों और पिंजरों में रोके हुए हैं ?"
सारथि ने कहा--"ये भद्र' प्राणी तुम्हारे विवाह-कार्य में बहुत जनों को खिलाने के लिए यहां रोके हुए हैं।"
सारथि का बहुत जीवों के वध का प्रतिपादक वचन सुन कर जीवों के प्रति सकरुण उस महाप्रज्ञ अरिष्टनेमि ने सोचा
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