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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन २२ : श्लोक २०-४३ टि० २३-३४
जो कहा-उसका तात्पर्य यह है कि यह पापकारी प्रवृत्ति है।' पर मर्कट बन्ध लगाना। किसी भी पापकारी प्रवृत्ति के लिए--'यह परलोक में श्रेयस्कर नेमिचन्द्राचार्य ने इसका अर्थ 'पंकूटीवन्ध' किया है। नहीं होगा'—इस सामान्य उक्ति का प्रयोग किया जाता है। उनके अनुसार इसका संस्कृत रूप 'संगोफ' है।
परलोक का एक अर्थ पशु-जगत् भी है। इस सन्दर्भ में ३०. सुतनु ! (सुयण) प्रस्तुत चरणों का अर्थ----'यह मेरा कार्य पशु-जगत् के प्रति
इस शब्द से राजीमती को आमन्त्रित किया गया है। कल्याणकारी नहीं होगा'-यह भी किया जा सकता है। चर्णि और टीकाओं में इसका कोई विशेष अर्थ नहीं है। २३. दे दिए (पणामए)
विष्णुपुराण के अनुसार उग्रसेन की चार पुत्रियों में एक का 'अर्प' धातु को 'पणाम' आदेश होता है। इसका अर्थ नाम सुतनु था।" सम्भव है यह राजीमती का दूसरा नाम हो। है—देना ।
३१. नियम और व्रत में (नियमव्वए) २४. शिविका रत्न में (सीयारयणं)
नियम का अर्थ है—पांचों इन्द्रियों तथा मन का नियमन - इस शिविका का नाम ‘उत्तरकुरु' था और इसका और व्रत का अर्थ है-प्रव्रज्या, दीक्षा ।'२ नियम के विस्तृत अर्थ निर्माण देवों ने किया था।
के लिए देखें-१६।५ का टिप्पण। २५. द्वारका से (बारगाओ)
३२. हे यशस्कामिन् (जसोकामी) देखें—परिशिष्ट १–भौगोलिक परिचय।
बृत्तिकार ने मूल 'अयशःकामिन्' मानकर इसका अर्थ२६. कूर्च (कुच्च)
अकीर्ति की इच्छा करने वाला—किया है। इसका वैकल्पिक उलझे हुए केशों को संवारने के काम आने वाला बांस अर्थ है—यशःकामिन् ! महान् कुल में उत्पन्न होने के कारण का बना उपकरण विशेष ।'
प्राप्त यश की वाञ्छा करने वाला। २७. कंघी से (फणग)
देखें-दसवेआलियं, २७ का टिप्पण । यह देशी शब्द है। इसका अर्थ है-कंघी। सूत्रकतांग में ३३. वमी हुई वस्तु को पीने की इच्छा करता है। इसी अर्थ में 'फणिह' शब्द प्रयुक्त हुआ है।
(वंत इच्छसि आवेउ) २८. (श्लोक ३०)
वृत्ति में एक सुन्दर श्लोक उद्धृत हैभगवान् अरिष्टनेमि दीक्षा लेकर जनपद में विचरण विज्ञाय वस्तु निन्द्य, त्यक्त्वा गृह्णन्ति कि क्वचित् पुरुषाः। करने लगे। उन्हें केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ। जब वे विचरण वान्तं पुनरपि भुक्ते, न च सर्वः सारमेयोऽपि। करते हुए पुनः द्वारका आए तब राजीमती ने उनकी देशना ३४. भोजराज की...और तू अन्धकवृष्णि का (भोयरायस्स सुनी। पहले ही वह विरक्त थी, फिर विशेष विरक्त हुई। अन्धगवण्हिणो) तत्पश्चात् उसने जो किया वह इस श्लोक में विर्णत है।
. विष्णुपुराण में कंस को भोजराज कहा है।५ कीर्तिराज २९. भुजाआ क गुम्फन स वक्ष का ढाक कर (बाहाह (वि० १४६५ से पूर्ववर्ती) द्वारा रचित नेमिनाथ चरित में काउं संगोफ)
उग्रसेन को भोजराज तथा राजीमती को भोज-पुत्री या संगोप का अर्थ है-भुजाओं का परस्पर गुम्फन स्तनों भोजराज-पुत्री कहा गया है।६ कुछ प्रतियों में ‘भोगरायस्स'
वान्त
१. वृहवृत्ति, पत्र ४६१-४६२ : नव निस्सेसं' त्ति निःश्रेयसं' कल्याणं मितियावत्।
परलो के भविष्यति, पापहे तुत्वादस्येति भावः, भवान्तरेषु १०. सुखबोधा, पत्र २८३ : 'संगोफ' पंकुटीवन्धनरूपम् । परलोकभीरुत्वस्यात्यन्तसभ्यस्ततयैवमभिधानमन्यथा चरमशरीरत्वादतिश- ११. विष्णुपुराण ४।१४।२१ : कंसाकंसवतीसुतनुराष्ट्रपालिकाश्चोग्रसेनस्य यज्ञानित्वाच्च भगवतः कुत एवंविधचिन्तावसरः?
तनूजा' कन्याः। २. आचारांग, २।११, चूर्णि पृ० ३७१।।
१२. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६४ : नियमव्रते-इन्द्रियनोइन्द्रियनियमने प्रव्रज्यायां च । ३. हेमशब्दानुशासन ८।४३६ : अपेल्लिवचचुच्प्प पणामाः ।
१३. वही, पत्र ४६५। ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६२ : "शिविकारत्न' देवनिर्मितमुत्तरकुरुनामकमिति १४. वही, पत्र ४६५। गम्यते।
१५. विष्णुपुराण, ३।५।२६ । ५. वही, पत्र ४६३ : कू?--गृढमेशोन्मोचको वंशमयः ।
१६. नेमिनाथ चरितः | ६. वही, पत्र ४६३ : फणकः-कड्कतकः।
इतश्चाऽम्भोज तुल्या ऽक्षो, भोजराजांगभूरभूत्। ७. सूयगडो, १४४२: संडासगं च फणिहं च, सीहलिपासगं च आणाहि। उग्रसेनो महीजानिरुग्रसेनासमन्वितः ।।६।४३। ८. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६३ : इत्थं चासौ तावदवस्थिता यावदन्यत्र प्रविहत्य स्निग्धां विदग्धां नृपभोजपुत्री, साम्राज्यलक्ष्मी स्वजनं च हित्वा ।
तत्रैव भगवानाजगाम, तत उत्पन्नकवलस्य भगवतो निशम्य देशनां पितृमनुज्ञाप्य च माननीयान्, बभूव दीक्षाऽभिमुखोऽथनेमिः ।।१०।४४ । विशेषत उत्पन्नवैराग्या किं कृतवतीत्याह-'अहे' त्यादि।
अथभोजनरेन्द्रपुत्रिक, प्रविमुक्ता प्रभुणा तपस्विनी। ६. वही, पत्र ४६४ : 'संगोपं' परस्परबाहूगुम्फनं स्तनोपरिमर्कटबन्ध- व्यलपद् गलदश्रुलोचना, शिथिलांगा लुठिता महीतले ।।११।१।
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