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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन २२ : श्लोक २६-३८
राजीमती ने सोचा-मेरे जीवन को धिक्कार है। जो मैं अरिष्टनेमि के द्वारा परित्यक्त हूं। अब मेरे लिए प्रव्रजित होना ही श्रेय है।
धीर एवं कृत-निश्चय राजीमती ने कूर्च२६ व कंघी से२७ संवारे हुए भौंरे जैसे काले केशों का अपने आप लुंचन किया।
वासुदेव ने लुंचित केशवाली और जितेन्द्रिय राजीमती से कहा--हे कन्ये! तू घोर संसार-सागर का अतिशीघ्रता से पार प्राप्त कर।
शीलवती एवं बहुश्रुत राजीमती ने प्रव्रजित हो कर द्वारका में बहुत स्वजन और परिजन को प्रव्रजित किया।
२६.राईमई विचिंतेइ
धिरत्थु मम जीवियं। जा हं तेण परिच्चत्ता
सेयं पव्वइउं मम।। ३०.अह सा भमरसन्निभे
कुच्चफणगपसाहिए। सयमेव लुचई केसे
धिइमंता ववस्सिया।। ३१. वासुदेवो य णं भणइ
लुत्तकेसं जिइंदियं। संसारसागरं घोरं
तर कन्ने ! लहुं लहुं ।। ३२.सा पव्वइया संती
पव्वावेसी तहिं बहुं । सयणं परियणं चेव
सीलवंता बहुस्सुया ।। ३३.गिरि रेवययं जंती
वासेणुल्ला उ अंतरा। वासंते अंधयारम्मि
अंतो लयणस्स सा ठिया।। ३४.चीवराई विसारंती
जहाजाय त्ति पासिया। रहनेमी भग्गचित्तो
पच्छा दिट्ठो य तीइ वि।। ३५.भीया य सा तहिं दटुं
एगते संजयं तयं। बाहाहिं काउं 'संगोफं'
वेवमाणी निसीयई।। ३६.अह सो वि रायपुत्तो
समुद्दविजयंगओ। भीयं पवेवियं दट्टु
इमं वक्कं उदाहरे।। ३७.रहनेमी अहं भद्दे
सुरूवे ! चारुभासिणि!। ममं भयाहि सुयणू !
न ते पीला भविस्सई ।। ३८.एहि ता भुंजिमो भोए
माणुस्सं खु सुदुल्लहं। भुत्तभोगा तओ पच्छा जिणमग्गं चरिस्सिमो।।
राजीमती विचिन्तयति धिगस्तु मम जीवितम्। याऽहं तेन परित्यक्ता श्रेयः प्रव्रजितुं मम।। अथ सा भ्रमरसन्निभान् कूर्चफणकप्रसाधितान्। स्वयमेव हुँचति केशान् धृतिमती व्यवसिता।। वासुदेवश्चेमा भणति लुप्तकेशां जितेन्द्रियाम्। संसारसागरं घोरं तर कन्ये! लघु लघु।। सा प्रव्रजिता सती प्राचीव्रजत् तत्र बहु। स्वजनं परिजनं चैव शीलवती बहुश्रुता।। गिरिं रैवतकं यान्ती वर्षेणार्दा त्वन्तरा। वर्षत्यन्धकारे अन्तर्लयनस्य सा स्थिता।। चीवराणि विसारयन्ती यथाजातेति दृष्टा। रथनेमिर्भग्नचित्तः पश्चाद् दृष्टश्च तयाऽपि।। भीता च सा तत्र दृष्ट्वा एकान्ते संयतं तकम्। बाहुभ्यां कृत्वा 'संगोफ' वेपमाना निषीदति।। अथ सोऽपि राजपुत्रः समुद्रविजयाऽङ्गजः । भीतां प्रवेपितां दृष्ट्वा इदं वाक्यमुदाहरत्।। रथनेमिरहं भद्रे! सुरूपे! चारुभाषिणि!। मां भजस्व सुतनु! न ते पीडा भविष्यति।।
वह अरिष्टनेमि को वंदना करने रैवतक पर्वत पर जा रही थी। बीच में वर्षा से भींग गई। वर्षा हो रही थी, अन्धेरा छाया हुआ था, उस समय वह लयन (गुफा) में ठहर गई। चीवरों को सुखाने के लिए फैलाती हुई राजीमती को रथनेमि ने यथाजात (नग्न) रूप में देखा। वह भग्न-चित्त हो गया। बाद में राजीमती ने भी उसे देख लिया। एकान्त में उस संयति को देख वह डरी और दोनों भुजाओं के गुम्फन से वक्ष को ढांक कर कांपती हुई बैट गई।
उस समय समुद्रविजय के अंगज राज-पुत्र रथनेमि ने राजीमती को भीत और प्रकम्पित देख कर यह वचन कहा
भद्रे ! मैं रथनेमि हूं। सुरूपे ! चारुभाषिणि ! तू मुझे स्वीकार कर। सुतनु !३० तुझे कोई पीड़ा नहीं होगी।
एहि तावत् भुंजामहे भोगान् मानुष्यं खलु सुदुर्लभम्। भुक्तभोगास्ततः पश्चाद् जिनमार्ग चरिष्यामः ।।
आ, हम भोग भोगें। निश्चित ही मनुष्य-जीवन बहुत दुर्लभ है। भुक्त-भोगी हो, फिर हम जिन-मार्ग पर चलेंगे।
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