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समुद्रपाल
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८. वध्यजनोभित मंडनों से शोभित (वन्झमंडणसो भाग)
इन शब्दों में एक प्राचीन परम्परा का संकेत मिलता है। प्राचीन काल में चोरी करने वाले को कठोर दण्ड दिया जाता था। जिसे वध की सजा दी जाती थी, उसके गले में कणेर के लाल फूलों की माला पहनाई जाती, उसे लाल कपड़े पहनाए जाते, उसके शरीर पर लाल चन्दन का लेप किया जाता और उसे सारे नगर में घुमाते हुए उसके वध्य होने की जानकारी देते हुए उसे श्मशान की ओर ले जाया जाता था।' ९. बाहर से जाते हुए देखा (पासइ वज्झगं)
वृहद्वृत्ति के अनुसार इसके संस्कृत रूप दो होते है बाह्यगं वध्यगं । बाह्यग का अर्थ है-नगर से बाहर ले जाया जाता हुआ तथा वध्यग का अर्थ है-वध्यभूमि में ले जाया जाता हुआ।
१०. वैराग्य में भीगा हुआ (संविग्गो)
'संविग्गो' यह समुद्रपाल का विशेषण है। बृहद्वृत्ति में 'संवेग' पाठ है और वह चोर के लिए प्रयुक्त है। 'संवेग' का अर्थ है - संसार के प्रति उदासीनता और मोक्ष की अभिलाषा अर्थात् वैराग्य। यहां वैराग्य के हेतुभूत वध्य पुरुष को संवेग
माना है।
११. भगवन् (भगवं)
'भग' शब्द के अनेक अर्थ हैं। वृत्तिकार ने यहां इसका अर्थ महात्म्य किया है। इसका तात्पयार्थ है-ऐश्वर्य सम्पन्न । १२. कृष्ण (कसिणं)
इसके संस्कृत रूप दो बनते हैं--कृत्स्न और कृष्ण। संग कृष्णलेश्या के परिणाम का हेतु बनता है, इसलिए उसे कृष्ण कहा गया है। यह चूर्णिकार का अभिमत है ।" वृत्ति में कत्स्न और कृष्ण—दोनों रूप उपलब्ध है। अर्थ की दृष्टि से कृष्ण रूप अधिक प्रासंगिक है।
१३. पर्यायधर्म (प्रव्रज्या) (परियायधम्मं )
पर्याय शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। पर्याय का एक अर्थ
१. (क) सूत्रकृतांग, १६ वृत्ति पत्र १५०, चूर्णि पृ० १८४ चोरो रक्तकणवीरकृतमुण्डमालो रक्तपरिधानो रक्तचन्दनोपलिप्तश्च प्रहतवर्ध्याडण्डिमो राजमार्गेण नीयमानः ।
(ख) वृहद्वृत्ति, पत्र ४८३ : वधमर्हति वध्यस्तस्य मण्डनानि - रक्तचन्दनकरवीरादीनि तैः शोभा तत्कालोचितपरभागलक्षणा यस्यासौ वध्र्यमण्डनशोभाकस्तम् ।
२. वृहद्वृत्ति पत्र ४८३ वाह्यं नगरवहिर्वर्त्तिप्रदेशं गच्छतीति बाह्यगरतं, को ऽर्थः ? - वहिर्निष्क्रामन्तं यद् वा वध्यगम् इह वध्यशब्देनोपचाराद् वध्यभूमिरुक्ता ।
३. वही, पत्र ४८३ संवेग संसारवैमुख्यतो मुक्त्यभिलाषस्तद् हेतुत्वात् सोऽपि संवेगस्तम् ।
४.
उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ २६१: कृष्ण-कृष्णलेश्यापरिणामि ।
५. बृहद्वृत्ति, पत्र ४८५ कसिणं ति कृत्स्नं कृष्णं वा कृष्णलेश्यापरिणामहेतुत्वेन ।
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अध्ययन २१ : श्लोक ८- १५ टि० ८-१८
है-दीक्षा । पर्याय धर्म का अर्थ है-मुनि धर्म ।
चूर्णिकार ने पर्याय का अर्थ संयम पर्याय और धर्म का अर्थ श्रुतधर्त किया है। वृत्ति में पर्याय का अर्थ है— प्रव्रज्या - पर्याय और धर्म का अर्थ है-पर्यायधर्म प्रव्रज्याधर्म । १४. दयानुकम्पी (दयाणुकंपी)
वृहद्वृत्ति के अनुसार दया के दो अर्थ हैं— हितोपदेश देना, रक्षा करना ।
जो हितोपदेश और सब प्राणियों की रक्षा-अहिंसा रूप दया से कम्पन-शील होता है, वह 'दयानुकम्पी' कहलाता है। १५. क्षांतिक्षम (खंतिक्खमे)
जो क्षान्ति से कुवचनों को सहन करता है, वह 'क्षान्ति-क्षम' कहलाता है, किन्तु अशक्ति से सहन करने वाला नहीं।" १६. कालोचित कार्य करता हुआ (कालेण काल )
यहां 'काल' शब्द समयोचित कार्य करने के अर्थ में प्रयुक्त है। जिस समय में जो कार्य करणीय होता है, उसी काल में उसे सम्पन्न करना, जैसे- स्वाध्याय काल में स्वाध्याय, प्रतिलेखन के समय प्रतिलेखन, वैयावृत्य के समय वैयावृत्य करना आदि। उत्सर्ग और अपवाद इन दोनों प्रकार के नियमों का अपनी-अपनी मर्यादा में प्रयोग उत्सर्ग काल में उत्सर्ग के नियमों का और अपवाद काल में अपवाद के नियमों का पालन करना 'कालेण कालं' का तात्पर्यार्थ है । " १७. उपेक्षा करता हुआ ( उवेहमाणो )
उपेक्षा का एक अर्थ है— उप + ईक्षा निकटता से देखना । इसका दूसरा अर्थ है-उपेक्षा करना, उदासीन रहना । प्रस्तुत श्लोक में यह दूसरा अर्थ ही प्रासंगिक है। १८. (न सव्व सव्वत्थभिरोयएज्जा)
६.
शान्त्याचार्य के अभिमत से इसके दो अर्थ हैं"१. जो कुछ देखे उसी को न चाहे ।
२. एक बार विशेष कारण से जिसका सेवन करे, उसका सर्वत्र सेवन न करे।
उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ २६१ : संयमपर्याये स्थित्वा श्रुतधर्मे अभिरुचिं करोति ।
७. बृहद्वृत्ति, पत्र ४८५ परियाय त्ति प्रक्रमात् प्रव्रज्यापर्यायस्तत्र धर्मः पर्यायधर्मः ।
८. वही पत्र ४८५ दयया हितोपदेशादिनानात्मिकया रक्षणरूपया वाकम्पनशीलानु
६. वही, पत्र ४८५-१६६ क्षान्त्या न त्वशक्त्या क्षमतेप्रत्यनीकाद्युदीरित दुर्वचनादिकं सहत इति क्षान्तिक्षमः ।
१०. उत्तराध्ययन चूर्णि पृष्ठ २६२ : कालेण कारणभृतेन यद् यस्मिन् काले कर्त्तव्यं तत् तस्मिन्नेव समाचरति, स्वाध्यायकाले स्वाध्यायं करोति, एवं प्रतिलेखनकाले प्रतिलेखयति, वैयावृत्यकाले वैयावृत्यं, उपसर्गकाले उपसर्ग अपवादकाले अपवादं करोति ।
११. वृहद्वृत्ति, पत्र ४८६ : न सव्वत्ति सर्वं वस्तु सर्वत्रस्थानेऽभ्यरोचयेत न यथादृष्टाभिलाषुकोऽभूदिति भावः, यदि वा यदकेत्र पुष्टालम्बनतः सेवितं न तत् सर्वम्-अभिमताहारादि सर्वत्राभिलपितवान् ।
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