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अध्ययन २१ : श्लोक ६-१७
उसे देख वैराग्य में भीगा हुआ समुद्रपाल यों बोला-“अहो! यह अशुभ कर्मों का दुःखद निर्याण--- अवसान है।"
उत्तरज्झयणाणि
३४८ ६. तं पासिऊण संविग्गो तं दृष्ट्वा संविग्नः
समुद्दपालो इणमब्बवी। समुद्रपाल इदमब्रवीत्। अहोसुभाण कम्माणं
अहो अशुभानां कर्मणां निज्जाणं पावगं इमं ।। निर्याणं पापकमिदम् ।। १०.संबुद्धो सो तहिं भगवं संबुद्धः स तत्र भगवान् परं संवेगमागओ।
परं संवेगमागतः। आपुच्छऽम्मापियरो
आपृच्छ्याम्बापितरौ पव्वए अणगारियं ।। प्रावाजीदनगारिताम् ।। ११. जहित्तु संगं च महाकिलेसं हित्वा सङ्गञ्च महाक्लेशं
महंतमोहं कसिणं भयावहं।। महामोहं कृष्णं भयावहम् । परियायधम्म चभिरोयएज्जा पर्यायधर्म चाभिरोचयेत् वयाणि सीलाणि परीसहे य।। व्रतानि शीलानि परीषहांश्च।।
वह भगवान” परम वैराग्य को प्राप्त हुआ और संबुद्ध बन गया। उसने माता-पिता को पूछकर साधुत्व स्वीकार किया।
रिया।
मुनि महान् क्लेश और महान् मोह को उत्पन्न करने वाले कृष्ण व भयावह संग (आसक्ति) को छोड़कर पर्याय-धर्म (प्रव्रज्या), व्रत और शील तथा परीषहों में अभिरुचि ले।
१२. अहिंस सच्चं च अतेणगं च अहिंसां सत्यं चास्तैन्यकं च
तत्तो य बंभं अपरिग्गहं च। ततश्चब्रह्मापरिग्रहं च। पडिवज्जिया पंच महव्वयाणि प्रतिपद्य पंचमहाव्रतानि चरिज्ज धम्मं जिणदेसियं विऊ।। चरेद् धर्म जिनदेशितं विद्वान् ।।
अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहइन पांच महाव्रतों को स्वीकार कर विद्वान् मुनि वीतराग-उपादिष्ट धर्म का आचरण करे।
१३. सव्वेहिं भूएहिं दयाणुकंपी सर्वेषु भूतेषु दयानुकम्पी सुसमाहित-इन्द्रिय वाला भिक्षु सब जीवों के प्रति
खंतिक्खमे संजयबंभयारी। क्षान्तिक्षमः संयतब्रह्मचारी। दयानुकम्पी" रहे । क्षान्तिक्षम", संयत और ब्रह्मचारी सावज्जजोगं परिवज्जयंतो सावद्ययोगं परिवर्जयन् हो। वह सावध योग का वर्जन करता हुआ विचरण
चरिज्ज भिक्खू सुसमाहिइंदिए।। चरेद् भिक्षुः सुसमाहितेन्द्रियः।। करे। १४. कालेण कालं विहरेज्ज रठे कालेन कालं विहरेत् राष्ट्र मुनि अपने बलाबल को तौलकर कालोचित कार्य
बलाबलं जाणिय अप्पणो य। बलाबलं ज्ञात्वाऽऽत्मनश्च। करता हुआ राष्ट्र में विहरण करे। वह सिंह की सीहो व सद्देण न संतसेज्जा सिंह इव शब्देन न संत्रस्येत् भांति भयावह शब्दों से संत्रस्त न हो। वह कुवचन
वयजोग सुच्चा न असभमाहु।। वचोयोगं श्रुत्वा नासभ्यमाह।।। सुन असभ्य वचन न बोले। १५. अवेहमाणो उ परिव्वएज्जा उपेक्षमाणस्तु परिव्रजेत् संयमी मुनि कुवचनों की उपेक्षा करता हुआ परिव्रजन
पियमप्पियं सव्व तितिक्खएज्जा। प्रियमप्रियं सर्व तितिक्षेत। करे। प्रिय और अप्रिय सब कुछ सहे। सर्वत्र सब न सव्व सव्वत्थभिरोयएज्जा। न सर्वं सर्वत्राभिरोचयेत् (जो कुछ देखे उसी) की अभिलाषा न करे तथा न यावि पूयं गरहं च संजए।। न चापि पूजां गहरे च सजेत्।। पूजा और गर्दा की भी अभिलाषा न करे।
१६.अणेगछंदा इह माणवेहि अनेकच्छन्दः इह मानवेष संसार म मनुष्या में जा अनक आभप्राय होते है
जे भावओ संपगरेइ भिक्खु। यान् भावतः संप्रेकरोति भिक्षुः। वस्तु-वृत्त्या वे भिक्षु में भी होते हैं। किन्तु भिक्षु उन भयभेरवा तत्थ उइंति भीमा भयभैरवास्तत्रोद्यन्ति भीमाः
भयभैरवास्तत्रोद्यन्ति भीमाः पर अनुशासन करे और साधुपन में देव, मनुष्य दिव्या मणुस्सा अदुवा तिरिच्छा।। दिव्या मानुष्याः अथवा तैरश्चाः ।। अथा तिर्यञ्च सम्बन्धी भय पैदा करने वाले
भीषण-भीषणतम उपसर्ग उत्पन्न हों, उन्हें सहन
करे।
१७.परीसहा दुव्विसहा अणेगे
सीयंति जत्था बहुकायरा नरा। से तत्थ पत्ते न वहिज्ज भिक्खू संगामसीसे इव नागराया।।
परीषहा दुर्विषहा अनेके सीदन्ति यत्र बहुकातरा नराः। स तत्र प्राप्तो न व्यथेत् भिक्षुः सङ्ग्रामशीर्ष इव, नागराजः।।
जहां अनेक दुस्सह परीषह प्राप्त होते हैं, वहां बहुत सारे कायर लोग खिन्न हो जाते हैं। किन्तु भिक्षु उन्हें प्राप्त होकर व्यथित न बने-जैसे संग्रामशीर्ष (मोर्चे) पर नागराज व्यथित नहीं होता।
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