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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन १६ : श्लोक २५-३३
"विश्व के शत्रु और मित्र सभी जीवों के प्रति समभाव रखना और यावज्जीवन प्राणातिपात की विरति करना बहुत ही कठिन कार्य है।"
"सदा अप्रमत्त रह कर मृषावाद का वर्जन करना
और सतत सावधान रह कर हितकारी सत्य वचन बोलना बहुत ही कठिन कार्य है।"
"दतौन जितना वस्तुखंड भी बिना दिए न लेना
और ऐसी दत्त वस्तु भी वही लेना, जो अनवद्य और एषणीय हो-बहुत ही कठिन कार्य है।"
“काम-भोग का रस जानने वाले व्यक्ति के लिए अब्रह्मचर्य की विरति करना और उग्र ब्रह्मचर्य महाव्रत को धारण करना बहुत ही कठिन कार्य है।"
२५.समया सव्वभूएसु
सत्तुमित्तेसु वा जगे। पाणाइवायविरई
जावज्जीवाए दुक्करा।। २६.निच्चकालऽप्पकत्तेणं
मुसावायविवज्जणं। भासियव्वं हियं सच्चं निच्चाउत्तेण दुक्करं।। २७.दंतसोहणमाइस्स
अदत्तस्स विवज्जणं। अणवज्जेसणिज्जस्स
गेण्हणा अवि दुक्करं।। २८.विरई अबंभचेरस्स
कामभोगरसन्नुणा। उग्गं महब्वयं बंभ
धारेयव्वं सुदुक्करं।। २६.घणधन्नपेसवग्गेसु
परिग्गहविवज्जणं। सव्वारंभपरिच्चाओ निम्ममत्तं सुदुक्करं।। ३०.चउविहे वि आहारे
राईभोयणवज्जणा। सन्निहीसंचओ चेव
वजजेयव्वो सुदुक्करो।। ३१.छुहा तण्हा य सोउण्हं दंसमसगवेयणा। अक्कोसा दुक्खसेज्जा य
तणफासा जल्लमेव य॥ ३२. तालणा तज्जणा चेव
वहबंधपरीसहा। दुक्खं भिक्खायरिया
जायणा य अलाभया।। ३३. कावोया जा इमा वित्ती
केसलोओ य दारुणो। दुक्खं बंभवयं घोरं धारेउं अ महप्पणो।।
समता सर्वभूतेषु शत्रुमित्रेषु वा जगति। प्राणातिपातविरतिः यावज्जीवं दुष्करा।। नित्यकालाप्रमत्तेन मृषावादविवर्जनम्। भाषितव्यं हितं सत्यं नित्यायुक्तेन दुष्करम्।। दन्तशोधनमात्रस्य अदत्तस्य विवर्जनम्। अनवद्यैषणीयस्य ग्रहणमपि दुष्करम् ।। विरतिरब्रह्मचर्यस्य कामभोगरसज्ञेन। उग्रं महाव्रतं ब्रह्म धारयितव्यं सुदुष्करम् ।। धनधान्यप्रेष्यवर्गेषु परिग्रहविवर्जनम्। सर्वारम्भपरित्यागः निर्ममत्वं सुदुष्करम्।। चतुर्विधेऽप्याहारे रात्रिभोजनवर्जनम्। सन्निधिसंचयश्चैव वर्जयितव्यः सुदुष्करः।। क्षुधा तृषा च शीतोष्णं दंशमशकवेदना। आक्रोशा दुःखशय्या च तृणस्पर्शा 'जल्ल' मेव च।। ताडना तर्जना चैव वधबन्धौ परीषहौ। दुःख भिक्षाचर्या याचना चालाभता।। कापोती येयं वृत्तिः केशलोचश्च दारुणः। दुःखं ब्रह्मव्रतं घोरं धारयितुं च महात्मनः।।
“धन-धान्य' और प्रेष्य-वर्ग के परिग्रहण२० का वर्जन करना, सब आरम्भों (द्रव्य की उत्पत्ति के व्यापारों) और ममत्व का त्याग करना बहुत ही कठिन कार्य है।" “चतुर्विध आहार को रात में खाने का त्याग करना तथा सन्निधि और संचय का वर्जन करना बहुत ही कठिन कार्य है।"
"भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, डांस और मच्छरों का कष्ट, आक्रोश-वचन, कष्टप्रद उपाश्रय, घास का बिछौना, मैल,
ताड़ना, तर्जना, बध, बन्धन" का कष्ट, भिक्षा-चर्या, याचना और अलाभ-इन्हें सहन करना बहुत ही कठिन कार्य है।"
“यह जो कापोती-वृत्ति२२ (कबूतर के समान दोष-भीरु वृत्ति), दारुण केश-लोच और घोर ब्रह्मचर्य को धारण करना है, वह महान् आत्माओं के लिए भी दुष्कर है।"
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