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मृगापुत्रीय
३२५ अध्ययन १६ : श्लोक ५६-७६ टि० ४०-५३ ४०. चाबुक और रस्सी के द्वारा (तोत्तजुत्तेहिं) रहते थे।
वृत्तिकार ने तोत्र का अर्थ चाबुक और योक्त्र का अर्थ ४८. लोहार के द्वारा (कम्मारेहिं) एक प्रकार का बन्धन किया है।'
जीवाजीवाभिगम आगम में लोहकार के अर्थ में 'कम्मार' सूत्रकृतांग (१।५।३०) में 'आरुस्स विज्झंति तुदेण पुढे' शब्द का प्रयोग मिलता है। बृहद्वृत्ति में 'कुमारेहिं' पाठ मान पाठ है। इस संदर्भ में 'तुद' का अर्थ है-पशुओं को हांकने का कर उसका अर्थ लोहकार किया है।" 'कुमारेहिं' यह अपपाठ वह साधन, जिसमें नुकीली कील डाली हुई होती है और जो प्रतीत होता है। इसके स्थान पर 'कम्मारेहिं' पाठ होना चाहिए। समय-समय पर पशुओं के गुह्य-प्रदेश में चुभाई जाती है, ४९. (तिब्वचंडप्पगाढाओ घोराओ) जिससे कि वे पशु गति पकड़ सके।
इसमें तीव्र, चण्ड, प्रगाढ़ और घोर-ये चार समालोच्य _ 'तुद' और 'तोत्र' दोनों एकार्थक होने चाहिए।
शब्द हैं। नारकीय-वेदना को रस-विपाक की दृष्टि से तीव्र कहा ४१. रोज्ञ (रोज्झो )
गया है। चण्ड का अर्थ है-उत्कट । दीर्घकालीनता की दृष्टि से यह देशी शब्द है। इसका अर्थ है-हरिण की एक जाति। उसे प्रगाढ कहा गया है। घोर का अर्थ है-रौद्रर संस्कत में इसका तत्सम अर्थ है-ऋष्यः। टीकाकार ने पशु ५०. (श्लोक ७४) विशेष कह कर छोड़ दिया है।
प्रस्तुत श्लोक में मृगापुत्र का अर्थवादपरक वक्तव्य है। ४२. पाप-कर्मों से घिरा हुआ (पाविओ)
अर्थवाद के प्रसंग में किसी विषय पर बल देने के लिए इसके संस्कृत रूप तीन बनते हैं-१. प्रावृतः-घिरा अतिशयोक्तिपूर्ण कथन भी किया जा सकता है। इस वक्तव्य में हुआ, २. पापिकः-पापी, ३. प्रापितः—प्राप्त कराया हुआ। दःख की इतनी प्रचुरता बतला दी कि उसमें सुख के लिए कहीं
वृत्तिकार ने इसका अर्थ पापिक किया है। प्रस्तुत प्रसंग अवकाश भी नहीं है। में प्रावृतः-घिरा हुआ यह अर्थ संगत लगता है।
५१. रोगों की चिकित्सा नहीं की जाती (निप्पडिकम्मया) ४३. भांति (विव)
निष्प्रतिकर्मता काय-क्लेश नामक तप का एक प्रकार है।" यह 'इव' अर्थ में अव्यय है। पिव, मिव, विव और वा- दशवकालिक (३४) में चिकित्सा को अनाचार कहा है। उत्तराध ये चारों अव्यय 'इव' अर्थ में प्रयुक्त होते हैं।'
ययन (२।३१, ३३) में कहा गया है-भिक्षु चिकित्सा का ४४. कौवा (ढंक)
अभिनन्दन न करे तथा जो चिकित्सा का परित्याग करता है. वह ढंक का अर्थ है--कौवा। राजस्थानी में इसे 'ढीकड़ा' भिक्षु है (१५।८)। यहां निष्प्रतिकर्मता का जो संवाद है, वह उक्त (बड़ा काग) कहते हैं। नरकों में तिर्यञ्च गति के जीव नहीं तथ्यों का समर्थन करता है। निर्ग्रन्थ परम्परा में निष्प्रतिकर्मता होते। वहां पशु-पक्षियां का अवकाश नहीं होता। देवता पशु-पक्षियों (चिकित्सा न कराने) का विधान रहा है किन्तु, सम्भवतः यह का वैक्रिय रूप बनाकर नारकों को संताप देते हैं।
विशिष्ट अभिग्रहधारी निर्ग्रन्थों के लिए रहा है। ४५. पक्षियों के (पक्खिहिं)
देखें-दसवेआलियं ३।४ का टिप्पण। नरक में तिर्यंच नहीं होते। यहां जो पक्षियों का उल्लेख है, ५२. हरिण (मिय.........) वह देवताओं द्वारा किए गए वैक्रिय रूप का है।'
मृग का अर्थ हरिण भी है और पशु भी। यहां दोनों अर्थ ४६. छुरे की धार से (खुरधाराहिं)
घटित हो सकते हैं। इसका शाब्दिक अर्थ है-छुरे की धार की तरह तीक्ष्ण। विस्तार के लिए देखें-उत्तरज्झयणाणि ११५ का टिप्पण। प्रस्तुत प्रसंग में इसका तात्पर्यार्थ है कि वैतरणी नदी की जल- ५३. (श्लोक ७६-८३) तरंगें छुरे की तरह तेज धार वाली होती हैं।
७६वें श्लोक में 'मियपक्खिणं' पाठ आया है। आगे के ४७. मुसुण्डियों से (मुसंढीहिं)
श्लोकों में केवल 'मृग' का ही बार-बार उल्लेख हुआ है। यह यह लकड़ी की बनती थी। इसमें गोल लोहे के कांटे जड़े क्यों ? इसके समाधान में टीकाकार ने बताया है कि मृग प्रायः
वति पत्र
१. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६० : तोत्रयोक्त्रः--प्राजनकबन्धनविशेषैः। २. देशीनाममाला, ७।१२। ३. बृहबृत्ति, पत्र ४६० : 'रोज्नः' पशुविशेषः। ४. वही, पत्र ४६० : 'पावितो' त्ति पापमस्यास्तीति भूम्नि मत्वर्थोयष्टक्
पापिकः। ५. वही, पत्र ४६०। ६. द्रष्टव्य सूयगडो : १११६१। का टिप्पण। ७. वृहवृत्ति, पत्र ४६०: ऐते च वैक्रिया एव, तत्र तिरश्चामभावात्। ८. वही, पत्र ४६० : 'खुरधाराहिन्ति क्षरधाराभिरतिच्छेदकतया
वैतरणीजलोम्मिभिरिति शेषः। ६. शेषनाममाला, श्लोक १५१ : मुषुण्ढी स्याद् दासमयी, वृत्तायकीलसंचिता। १०. जीवाजीवाभिगम ३।११८-११६............कम्मारदारए सिता।
वृत्ति पत्र १२१ : कम्मारदारकः लोहकारदारकः। ' ११. बृहवृत्ति, पत्र ४६१ : कुमारैः-अयस्कारैः। १२. वही, पत्र ४६१ : तीव्रा अनुभागतोऽत एव चण्डाः ---उत्कटाः
प्रगाढाः-गुरुस्थितिकास्तत एव 'घोराः' रौद्राः। १३. ओवाइय, सूत्र ३६ : सव्वगायपरिकम्मविभूसविप्पमुक्के।
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