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महानिर्ग्रन्थीय
५२. एवुग्गदंते वि महातबोधणे महामुनी महापइन्ने महायसे महानियंठिज्जमिणं महासुर्य से काहए महया वित्थरेणं ।। ५४. तुट्ठो य सेणिओ राया इणमुदाह कयंजली। अणाहतं जहाभूयं सुदु मे उवदसिवं ।।
५५. तुझं सुलद्धं खु मणुस्सजम्मं लाभा सुलखा य तुमे महेसी ।। तुम्मे सणाहा य सबंधवा य जं मे ठिया मग्गे जिणुत्तमाणं ।। ५६. तं सि नाही अणाहाणं
सव्वभूयाण संजया ।। खामेमि ते महाभाग ! इच्छामि अणुसासिउं ।। ५७. पुच्छिऊण मए तुमं
झाणविग्धो उ जो कओ निमंतिओ य भोगेहिं
तं सव्वं मरिसेहि मे ।। ५८. एवं बुणित्ताण स रायसीहो अणगारसीहो परमाइ भत्तिए । सओरोहो व सपरियणो य धम्मारत्तो विमलेण चेयसा ।। ५६. ऊससियरोमकूवो
काऊण य पयाहिणं । अभिवंदिऊण सिरसा अइयाओ नराहिवो ।। ६०. इयरो वि गुणसमिद्धो तिगुत्तिगुत्तो तिदंडविरओ य विहग इव विप्पमुक्को विहरइ वसु विगयमोहो ।।
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-ति बेमि ।।
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एवमुग्रदान्तोपि महातपोधनः महामुनिर्महाप्रति महायशाः। महानिर्गन्धीयमिदं महाश्रुतं सोऽचीकथत् महता विस्तरेण ।।
तुष्टश्च श्रेणिको राजा इदमुवाह कृताञ्जलिः । अनाथत्वं यथाभूतं सुष्ठु मे उपदर्शितम् ।।
पृष्ट्वा मया तव ध्यानविघ्नस्तु यः कृतः । निमन्त्रितश्च भोगैः तत् सर्वं मषय मे ।।
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“हे महर्षि ! तुम्हारा मनुष्य जन्म सुलब्ध है-सफल है । तुम्हें जो उपलब्धियां हुई हैं वे भी सफल हैं। तुम सनाथ हो, सबान्धव हो, क्योंकि तुम जिनोत्तम (तीर्थंकर) के मार्ग में अवस्थित हो ।”
तव सुलब्धं खलु मनुष्यजन्म लाभाः सुलब्धाश्च त्वया महर्षे ! यूयं सनाथाश्च सबान्धवाश्च यद् भवन्तः स्थिता मार्गे जिनोत्तमानाम् ।। त्वमसि नाथोऽनाथानां सर्वभूतानां संयत ! | क्षमयामि त्वां महाभाग ! इच्छाम्यनुशासयितुम् ।।
एवं स्तुत्वा स राजसिंह: अनगारसिंहं परमया भक्त्या । सावरोधश्च सपरिजनश्च धर्मानुरक्तो विमलेन चेतसा ।। उच्छ्रवसितरोमकूपः कृत्वा च प्रदक्षिणाम अभिवन्द्य शिरसा अतियातो नराधिपः ।। इतरोऽपि गुणसमृद्धः त्रिगुप्तिगुप्तस्त्रिदण्डविरतश्च । विहग इव विप्रमुक्तः विहरति वसुधां विगतमोहः ।।
अध्ययन २० : श्लोक ५३-६०
इस प्रकार उग्र- दान्त, महा तपोधन, महा-प्रतिज्ञ, महान् यशस्वी उस महामुनि ने इस महाश्रुत, महानिर्ग्रन्थीय अध्ययन को महान् विस्तार के साथ
कहा ।
-इति ब्रवीमि ।
श्रेणिक राजा तुष्ट हुआ और दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार बोला – “भगवन् ! तुमने अनाथ का यथार्थ स्वरूप मुझे समझाया है।"
“तुम अनाथों के नाथ हो, तुम सब जीवों के नाथ हो । हे महाभाग ! मैं तुमसे क्षमा चाहता हूं और तुमसे मैं अनुशासित होना चाहता हूं।”
" मैंने तुमसे प्रश्न कर जो ध्यान में विघ्न किया और भोगों के लिए निमन्त्रण दिया उन सबको तुम सहन करो - क्षमा करो ।”
इस प्रकार राजसिंहश्रेणिक अनगार-सिंह की परम भक्ति से स्तुति कर अपने विमल वित्त से रनिवास, परिजन और बन्धु-जन सहित धर्म में अनुरक्त हो
गया।
राजा के रोम कूप उच्छ्वसित हो रहे थे। वह मुनि की प्रदक्षिणा कर, सिर झुक्न, वन्दना कर चला
गया।
वह गुण से समृद्ध, त्रिगुप्तियों से गुप्त, तीन दण्डों से विरत और निर्मोह मुनि भी विहग की भांति स्वतन्त्र भाव से भूतल पर विहार करने लगे ।
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- ऐसा मैं कहता हूं ।
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