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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन २० :श्लोक ४१-४५ टि०२६-३३
मार्ग जिस पर भगवान महावीर ने परिव्रजन किया है। प्रस्तुत के सिक्कों का 'कार्षापण' और ताम्बे के कर्ष का नाम 'पण' संदर्भ में दोनों अर्थ संगत हो सकते हैं।
रहा हो। २६. (.......नियमेहि)
२९. मुद्रारहित है (अयंतिए) नियम का अर्थ है---व्यवस्था, मर्यादा। दिगम्बर साहित्य वृत्तिकार ने 'अयंतिए' को मुनि का विशेषण मानकर में नियम के चार अर्थ प्राप्त हैं
उसका अर्थ नियंत्रण रहित किया है।३ अनन्त चतुष्टयात्मक चेतना का परिणाम।'
हमने इस शब्द को कूटकार्षापण का विशेषण मानकर काल-मर्यादा से किया जाने वाला त्याग। इसका अर्थ मुद्रा रहित किया है। पूरे पद का अर्थ होगा-मुद्रा सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र।
रहित खोटा सिक्का। ४. 'यही तथा ऐसे ही करना है'-इस संकल्प से ३०. कुशील-वेश (कुसीललिंग) अन्य पदार्थ की निवृत्ति करना।
वृत्तिकार ने कुसीललिंग को एक शब्द मानकर उसका दशवकालिक की जिनदासचूर्णि में प्रतिमा आदि अभिग्रह अर्थ पार्श्वस्थ आदि शिथिलाचारी साधुओं का वेश किया है।" को नियम कहा है।
किन्तु कुशील का कोई अपना स्वतन्त्र वेष यहां विवक्षित यम और नियम- ये दोनों एक ही धातु से निष्पन्न शब्द नहीं है। इसका प्रतिपाद्य यह है कि कुशील होते हुए भी जो हैं। निरन्तर सेवनीय व्रत को 'यम' और समय-समय पर मुनि का वेष धारण करता है। इसलिए कुशील को प्रथमा आचरणीय अनुष्ठान को 'नियम' कहा जाता है-'यमास्तु विभक्ति रहित पद मानकर इसका अर्थ किया जाए तो प्रतिपाद्य सततं सेव्याः, नियमास्तु कदाचन।' महर्षि पतंजलि ने शौच, समीचीन रूप से घटित होता है। संतोष आदि को नियम कहा है।
३१. (हणाइ वेयाल इवाविवन्नो) २७. मुंडन में रुचि (मुण्डरुई)
अविपन्न का अर्थ है-अनियन्त्रित, अबाधित। वेताल __ जो केवल सिर मुंडाने में ही श्रेय समझता है और शेष मंत्रों से नियंत्रित या कीलित होकर ही हित साध सकता है, आचार-अनुष्ठानों से पराङ्मुख होता है, वह 'मुंडरुचि' अन्यथा नहीं। यदि वह अनियंत्रित होता है तो वह विनाश का कहलाता है।
हेतु बनता है।" २८. सिक्के (कहावणे)
३२. विषयों से युक्त (विसओववन्नो) ___ भारतवर्ष का अत्यधिक प्रचलित सिक्का 'कार्षापण' था। शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श ये विषय हैं। इन मनुस्मृति में इसे ही 'धरण' और 'राजत-पुराण' (चांदी का विषयों के साथ जुड़ा हुआ धर्म तारक नहीं, मारक होता है। पुराण) भी कहा गया है। चांदी के कार्षापण या पुराण का भगवान महावीर की यह घोषणा धर्म के क्षेत्र में एक वजन ३२ रत्ती था। सोने और ताम्बे के 'कर्ष' का वजन ८० क्रांति का स्वर है। रत्ती था। ताम्बे के कार्षापण को 'पण' कहते थे। पाणिनीय मार्क्स ने धर्म के विषयोपपन्न स्वरूप अथवा सत्ता और सूत्र पर वार्तिक लिखते हुए कात्यायन ने 'कार्षापण' को 'प्रति' अर्थ से जुड़े हुए धर्म को लक्ष्य में रखकर ही उसे मादक कहा है और 'प्रति' से खरीदी जाने वाली वस्तु को 'प्रतिक' कहा था। कहा गया है। पाणिनि ने इन सिक्को को 'आहत' कहा है। ३३. (कोहल, कुहेडविज्जा) जातकों में 'कहापण' शब्द पाया जाता है। अष्टाध्यायी में कोहल'–सन्तान प्राप्ति के लिए विशेष द्रव्यों से मिश्रित 'कार्षापण' और 'पण' ये दोनों पाये जाते हैं।" सम्भव है चांदी जल से स्नान आदि करने को 'कौतुक' कहा जाता है।" १. नियमसार, १ तात्पर्यवृत्ति : यः....स्वभावानन्तचतुष्टयात्मकः ते षोडश स्याद्धरणं पुराणश्चैव राजतः। शुद्धज्ञानचेतनापरिणामः स नियमः।
कार्यापणस्तु विज्ञेयस्ताम्रिकः कार्षिकः पणः ।। २. रत्नकरंड श्रावकाचार ८७ : नियमः परिमितकालः।
६. मनुस्मृति, ८१३६। ३. नियमसार, १ तात्पर्यवृत्ति : नियमशब्दस्तावत् सम्यगदर्शनशानचारित्रेषु १०. पाणिनि अष्टाध्यायी, ५।२।१२० । वर्तते।
११. (क) पाणिनि अष्टाध्यायी, ५।१।२६ । ४. राजवार्तिक १७।३।
(ख) पाणिनि अष्टाध्यायी, ५१३४ । ५. जिनदासचूर्णि, पृ० ३७० : नियमा-पडिमादयो अभिग्गहबिसेसा। १२. पाणिनिकालीन भारतवर्ष, पृ० २५७। पातंजलयोगदर्शन, २१३२।
१३. बृहबृत्ति, पत्र ४७८ : अयन्त्रितः अनियमितः कूटकार्षापणवत्। ७. बृहवृत्ति, पत्र ४७८ : मुण्ड एव-मुण्डन एव केशापनयनात्मनि १४. वही, पत्र ४७८ : कुशीललिंग-पास्थिादिवेषम्। शेषानुष्ठानपरांगमुखता रुचिर्यस्यासी मुण्डरुचिः।
१५. वही, पत्र ४७६ : वेताल इवाविवण्ण 'त्ति अविपन्न: अप्राप्तविपत् ८. मनुस्मृति, ८।१३५, १३६ :
मन्त्रादिभिरनियन्त्रित इत्यर्थः ।' पलं सुवर्णाश्चत्वारः पलानि धरणं दश।
१६. वही, पत्र ४७६ : शब्दादिविषययुक्तो हन्ति । द्वे कृष्णले समधृते विज्ञेयो रूप्यमाषकः ।।
१७. वही, पत्र ४७६ : कौतुकं च सपत्याद्यर्थं स्नपनादि।
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