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उत्तरज्झयणाणि
४५. जे लक्खणं सुविण पउंजमाणे निमित्तको ऊहलसंपगाढे । कुहेडविज्जासवदारजीवी न गच्छाई सरणं तम्मि काले ।
४६. तमंतमेणेव उ से असीले सया दुही विप्परियासुवेइ । संथावई नरगतिरिक्खजोणि मोणं विराहेत्तु असाहुरूवे ।। ४७. उद्देसियं कीयगडं नियागं
न मुंबई किंचि अणेसणिज्जं । अग्गी विवा सव्वभक्खी भवित्ता इओ चुओ गच्छइ कट्टु पावं । ४८. न तं अरी कंठछेत्ता करेइ
जं से करे अप्पणिया दुरप्पा। से नाहिई मच्चुमुहं तु पत्ते पच्छाणुतावेण दयाविणी ।।
४६. निरट्ठिया नग्गरुई उ तस्स जे उत्तम विवज्जासमेई । इमे वि से नत्थि परे वि लोए कुछओ वि से झिन्न तत्व लए।
५०. एमेवहाछंदकुसीलरूवे
मग्गं विराहेत्तु जिणुत्तमाणं । कुररी विवा भोगरसाणुगिद्धा निरट्ठसोया परियावमेइ ।।
५१. सोच्चान मेहावि सुभासियं इमं अणुसासणं नाणगुणोववेयं । मग्गं कुसीलाण जहाय सव्वं महानियंठाण वए पहेणं ।। ५२.चरित्तमायारगुणन्निए तओ अणुतरं संजम पालियाणं । निरासवे संख्खवियाण कंम्म उवेइ ठाणं विउलुत्तमं धुवं ।।
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यो लक्षणं स्वप्नं प्रयुञ्जानः निमित्तकुतूहलसंप्रगाढः । कुहेटविद्यावद्वारजीवी न गच्छति शरणं तस्मिन् काले ।।
तमस्तमसैव तु सः अशीलः सदा दुःखी विपर्यासमुपैति । संधावति नरकतिर्यग्योनी: मौनं विराध्याऽसाधुरूपः ।। औद्देशिकं क्रीतकृतं निग्याग्रं न मुञ्चति किञ्चिदनेषणीयम् । अग्निरिव सर्वभक्षी भूत्वा इतश्च्युतो गच्छति कृत्वा पापम् ।। न तमरिः कण्ठच्छेत्ता करोति यं तस्य करोत्यात्मीया दुरात्मता । स ज्ञास्यति मृत्युमुखं तु प्राप्तः पश्चादनुतापेन दयाविहीनः ।।
निरर्थिका नाग्न्यरुचिस्तु तस्य य उत्तमार्थे विपर्यासमेति । अयमपि तस्य नास्ति परोऽपि लोक: द्वयोपि स क्षीयते तत्र लोकः ।।
एवमेव वचाच्छन्कुशीलरूपः मार्ग विराध्य जिनोत्तमानाम् । कुररी इव भोगरसानुगृद्धा निरर्थशोका परितापमेति ।।
श्रुत्वा मेधावी सुभाषितमिदं अनुशासनं ज्ञानगुणोपेतम् । मार्गकुशीलानां हित्वा सर्वं महानिर्ग्रन्थानां व्रजेत् पथा ।। चरित्राचारगुणान्वितस्ततः अनुत्तरं संयमं पालयित्वा । निरास्रवः संक्षपय्य कर्म उपैति स्थानं विपुलोत्तमं ध्रुवम् ॥
अध्ययन २० : श्लोक ४५-५२
“जो लक्षण - शास्त्र, स्वप्न शास्त्र का प्रयोग करता है, निमित्त शास्त्र और कौतुक कार्य में अत्यन्त आसक्त है, मिथ्या आश्चर्य उत्पन्न करने वाले विद्यात्मक, आश्रव द्वार से जीविका चलाता है, वह कर्म का फल भुगतने के समय किसी की शरण को प्राप्त नहीं होता ।"
"वह शील-रहित साधु अपने तीव्र अज्ञान से सतत दुःखी होकर विपर्यास को प्राप्त हो जाता है। * वह असाधु प्रकृति वाला मुनि धर्म की विराधना कर नरक और तिर्यग्योनि में आता जाता रहता है।”
“जो औद्देशिक, क्रीतकृत, नित्याग्र* और कुछ भी अनेषणीय को नहीं छोड़ता, वह अग्नि की तरह सर्व-भक्षी होकर, पाप कर्म का अर्जन करता है और यहां से मरकर दुर्गति में जाता है।"
“ अपनी दुष्प्रवृत्ति जो अनर्थ उत्पन्न करती है वह अनर्थ गला काटने वाला शत्रु भी नहीं करता। वह दुष्प्रवृत्ति करने वाला दया विहीन मनुष्य मृत्यु के मुख में पहुंचने के समय पश्चात्ताप के साथ इस तथ्य को जान जाएगा।"
“जो अन्तिम समय की आराधना में भी विपरीत बुद्धि रखता है-दुष्प्रवृत्ति को सत् प्रवृत्ति मानता है उसकी संयम-रुचि भी निरर्थक है। इसके लिए यह लोक भी नहीं है, परलोक भी नहीं है। वह दोनों लोकों से भ्रष्ट होकर दोनों लोकों के प्रयोजन की पूर्ति न कर सकने के कारण चिन्ता से छीज जाता है ।"
" इसी प्रकार यथाछन्द ( स्वच्छन्द भाव से विहार करने वाले) और कुशील साधु जिनोत्तम भगवान् के मार्ग की विराधना कर परिताप को प्राप्त होते हैं, जैसेभोग-रस में आसक्त होकर अर्थ-हीन चिन्ता करने वाली गीध पक्षिणी ।"
“मेधावी पुरुष इस सुभाषित, ज्ञान-गुण से युक्त अनुशासन को सुनकर कुशील व्यक्तियों के सारे मार्ग को छोड़कर महा-निर्ग्रन्थ के मार्ग से चले ।”
" फिर चरित्र के आचरण और ज्ञान आदि गुणों से सम्पन्न निर्ग्रन्थ अनुत्तर संयम का पालन कर, कर्मों का क्षय कर निराव होता है और वह विपुलोत्तम शाश्वत मोक्ष में चला जाता है।"
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