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मृगापुत्रीय
३२३ अध्ययन १६ :श्लोक ३३-४६ टि० २४-३१ होती; स्वाधीनता रहती है (लोच न करने वाला मस्तक को धोने, आगमों में मुनि के लिए 'अहीव एगंतदिट्ठी'—सांप की सुखाने, तेल लगाने में काल व्यतीत करता है, स्वाध्याय आदि में भांति एकांतदृष्टि-यह विशेषण प्रयुक्त हुआ है। इसका तात्पर्य स्वतंत्र नहीं रहता); निर्दोषता की वृद्धि होती है और शरीर से है कि जैसे सांप लक्ष्य पर ही दृष्टि रखता है, वैसे ही मुनि ममत्व हट जाता है। लोच से धर्म के प्रति श्रद्धा होती है, यह अपने लक्ष्य-मोक्ष को ही दृष्टि में रखे। जिस मुनि में यह उग्र तप है, कष्ट-सहन का उत्कृष्ट उदाहरण है।'
निष्ठा होती है, वह एकांतदृष्टि कहलाता है। २४. (धारेठ अ महप्पणो)
२८. प्रज्वलित अग्निशिखा को (अग्गिसिहा दित्ता) यहां अ और महप्पणों को पृथक् मानकर अनुवाद किया इस श्लोक के प्रथम चरण में 'अग्गिसिहा' और 'दित्ता' गया है। इन्हें संयुक्त मानकर भी अनुवाद किया जा सकता में द्वितीया के स्थान में प्रथमा विभक्ति है। दूसरे चरण में है—घोर ब्रह्मचर्य को धारण करना अमहात्माओं के लिए दुष्कर 'सुदुक्कर' में लिंग-व्यत्यय मान सुदुष्करा किया जाए और
'करोति' धातु सर्व-थात्वर्थवाची होता है, अतः उसे शक्ति के अर्थ २५. (सुमज्जिओ)
में माना जाए तो अग्निशिखा को प्रथमा विभक्ति मान कर भी सुमज्जित का अर्थ है-अच्छी तरह से स्नान किया व्याख्या की जा सकती है। हुआ। वृत्तिकार ने इसे सौकुमार्य का हेतु बतलाया है। सुमज्जिअ २९. वस्त्र के थैले का (कोत्थलो) का दूसरा संस्कृत रूप सुमार्जित भी हो सकता है। 'मृजूक् शुद्धी' हिन्दी में इसे थैला और राजस्थानी में 'कोथला' कहते से सुमज्जित और 'मृजूषा शौचालंकारयोः' से सुमार्जित रूप हैं। निष्पन्न होता है।
टीकाकार का संकेत है कि यहां वस्त्र, कम्बल आदि का २६. (आगासे गंगसोउव्व)
'थैला' ही ग्राह्य है, क्योंकि वही हवा से नहीं भरा जाता। चर्म आकाशगंगा का अर्थ नीहारिका है, ऐसी संभावना की जा आदि का थैला तो भरा जा सकता है।' सकती है।
३०. (तं वितऽम्मापियरो) २७. सांप जैसे एकाग्रदृष्टि से (अहीवे गंतदिट्ठीए) वित—यह ब्रूते के स्थान पर आर्ष प्रयोग है। बृहद्वृत्ति
सर्प अपने लक्ष्य पर अत्यन्त निश्चल दृष्टि रखता है, में 'तं बिंतऽम्मापियरो'—इस पाठ के बिंत पद को अम्मापियरो यही कारण है कि उसके द्वारा देखे जाने वाले पदार्थ का उसमें का विशेषण माना गया है और कर्त्ता का अध्याहार किया गया है। स्थिर प्रतिबिम्ब पड़ता है। उसकी आंखों की रचना ऐसी है कि इसके दो पाठांतर उपलब्ध हैं-'सो बेअम्मापियरो' में कर्ता वह प्रतिबिम्ब को ग्रहण कर लम्बे समय तक उसको अवस्थित और क्रिया का एकवचन प्राप्त है। 'तो बेंतऽम्मापियरो'-इस रख सकती है। तथा आवश्यकता होने पर उसको पुनः प्रतिबिम्बित पाठ में वचनव्यत्यय के आधार पर बिंत का प्रयोग ब्रूते के अर्थ कर सकती है, प्रस्तुत कर सकती है। वह प्रतिबिम्ब लम्बे समय में बतलाया गया है। तक अमिट रहता है। यही कारण है कि सर्प को मारने वाले ३१. चार अन्त वाले (चाठरते) हत्यारे का सर्प की आंख में प्रतिबिम्ब अवस्थित हो जाता है। संसार-रूपी कांतार के चार अन्त होते हैं-(१) नरक, उसी के आधार पर उसका साथी सर्प या सर्पिणी उस हत्यारे का (२) तिर्यंच, (३) मनुष्य और (४) देव। इसलिए उसे 'चाउरंत' वर्षों तक पीछा कर उसे मार देती है।
कहा जाता है।
१. मूलाराधना, आश्वास २८८-६२ :
४. बृहद्वृत्ति, पत्र ४५७ : 'अग्निशिखा' अग्निज्वाला दीप्तेत्युज्ज्वला केसा संसजति हु णिप्पडिकारस्स दुपरिहारा य।
ज्वालाकराला वा, द्वितीयार्थे चात्र प्रथमा, ततो यथाऽग्निशिखां दीप्तां सयणादिमु ते जीवा दिट्टा आगंतुया य तहा।।
पातुं सुदुष्कर, नृभिरिति गम्यते, यदि वा लिंगव्यत्ययात् सर्वधात्वर्थत्वाच्च जूगाहिं य लिंक्खाहिं य बाधिज्जंतस्स संकिलेसो य।
करोतेः 'सुदुष्करा' सुदृःशका यथाऽग्निशिखा दीप्ता पातु भवतीति योगः, संघट्टिज्जति य ते कंडुयणे तेण सो लोचो।।
एवमुत्तरत्रापि भावना। लोचकदे मुण्डत्ते मुण्डत्ते होइ णिब्वियारत्तं।
५. वही, पत्र ४५७ : कोत्थल इह वस्त्रकम्बलादिमयो गृह्यते, चर्ममयो हि तो णिब्बियारकरणो पग्गहिददरंपरक्कमदि।।
सुखेनैव प्रियेतेति। अप्पा दमिदो लोएण होइ ण सुहे य संगमुवयादि।
६. वही, पत्र ४५६ : 'तद्' अनन्तरोक्तं 'बिति' 'ब्रवन्ती' अभिदधती सीधाणदा य णिद्दोसदा य देहे य णिम्ममदा।।
अम्बापितरौ, प्रक्रमान्मृगापुत्र आह, यथा एवमित्यादि, पठ्यते च--'सो आणक्खिदा य लोचेण अप्पणो होदि थम्मसड्ढा च।
बेअम्मापियरो!' ति स्पष्टमेव नवरमिह अम्बापितरावित्यामन्त्रणपद, पठन्ति उग्गो तवो य लोचो तहेव दुक्खस्स सहणं च।।
च-'तो बेंतऽम्मापियरो' त्ति 'विति' त्ति वचनव्यत्ययात्ततो ब्रूते अम्बापितरी २. बृहद्वृत्ति, पत्र ४५७ : सुमज्जितः सुष्टु स्नपितः, सकलनेपथ्योपलक्षणं । मृगापुत्र इति प्रक्रमः। चैतत्, इह च सुमज्जितत्वं सुकुमारत्वे हेतुः।
७. वही, पत्र ४५६ : चत्वारो-देवादिभवा अन्ता--अवयवा यस्यासी ३. (क) अंतगडवसाओ ३७२ : अहीव एगंतदिट्ठीए।
चतुरन्तः-संसारः। (ख) पण्हावागरणाई १०११ : जहा अही चेव एगदिट्टी।
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