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मृगापुत्रीय
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अध्ययन १६ : श्लोक २६-३३ टि० १६-२२
जैसी इसमें क्या बात है ? इसमें कौन सा भूखा-प्यासा रहना पड़ता है। पता नहीं, किस अज्ञानी ने मनगढ़न्त ऐसा लिख दिया ? तत्काल उन्होंने उस पंक्ति को काट दिया।
धन की असीम लालसा होती है। उसे संतोष के बिना सीमित नहीं किया जा सकता। “जहा लाहो तहा लोहो" का सूत्र सर्वथा सत्य है।' एक कवि ने लिखा है---
"गोधन गजधन वाजिधन और रतनधन खान । जब आवै संतोषधन सब धन धूलि समान ।। * २०. परिवहण (परिग्गह)
कुछ दिन बीते । अन्धेरी रात और बरसात का मौसम था। एक नवयुवति अकेली अपने घर चली जा रही थी । संयोगवश वह अन्धेरे और वर्षा के कारण मार्ग के बीच में ही अटक गई। आस-पास में ठहरने के लिए कोई स्थान नहीं था । कुछ ही दूरी पर संन्यासी का आश्रम था। वह वहां पहुंची। दरवाजा खटखटाया। संन्यासी ने भीतर से दरवाजा खोला। युवति ने घबराते हुए संन्यासी से कहा— महात्मन् ! मैं एकाकी हूं और खराब मौसम के कारण अपने घर नहीं जा सकती । रात्री को यहीं विश्राम चाहती हूं। आप मुझे स्थान बताएं । संन्यासी ने उसे आश्रम के भीतर निर्मित मंदिर का स्थान बता दिया। युवती वहां गई और सुरक्षा की दृष्टि से उसने कपाटों को बन्द कर सांकल लगा ली।
तब तक संन्यासी के मन में कोई भी विकार भावना नहीं थी। ज्यों-ज्यों रात बीतने लगी एकाएक उनको काम भावना सताने लगी। उन्होंने मन ही मन सोचा आज अलभ्य अवसर आया है और वह नवयुवति भी अकेली है । अब मेरी मनोकामना को पूरी होने में समय नहीं लगेगा। वे अपने आपको रोक नहीं सके। तत्काल वे उठे और उस युवती से कपाट खुलवाने का प्रयत्न करने लगे। युवती भी मन ही मन समझ गई कि अवश्य ही दाल में काला है । लगता है, अब संन्यासी के मन में वह पवित्र भावना नहीं रही। निश्चित ही वे मेरा शील भंग करना चाहते हैं । यह सोचकर उसने किवाड़ों को खोलने से इन्कार कर दिया।
अपने प्रयत्न को असफल होते देख संन्यासी ने इसका दूसरा उपाय निकाला। वे मन्दिर के ऊपर चढ़े और उसके गुम्बज को तोड़कर भीतर घुसने लगे। संकड़ा छिद्र और स्थूल शरीर । उसका परिणाम यह हुआ कि वे अधर में ही लटक गए। न तो वे बाहर निकल सकते थे और न ही भीतर जा सकते थे । इस रस्साकशी में उनका सारा शरीर छिलकर लहूलुहान हो गया। संन्यासी को ब्रह्मचर्य की दुष्करता समझ में आ गई। १९. धन (घण)
धन में चल और अचल ——दोनों प्रकार की सम्पत्ति का समावेश होता है। विनिमय रूप में मुद्रा के द्वारा जो लेन-देन किया जाता है वह चल सम्पत्ति कहलाती है। भूमि, मकान, खेत, पशु आदि को अचल सम्पत्ति कहा जाता है । मनुष्य में
१. उत्तरज्झयणाणि ८।२७।
२. ठाणं ३६५
३. (क) दसवेआलियं ६।२० मुच्छा परिग्गहो वृत्तो । (ख) तत्त्वार्थसूत्रः ७।१२ मूर्च्छा-परिग्रहः ।
४. बृहद्वृत्ति, पत्र ४५६ 'ताडना' करादिभिराहननम् ।
५. वही, पत्र ४५६ : तर्जना अंगुलिभ्रमणभूत्क्षेपादिरूपा ।
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यहां परिग्गह का अर्थ है परिग्रहण – अपने स्वामित्व में रखना । स्थानांग में परिग्रह के तीन प्रकार बतलाए गए हैंशरीर, कर्म-पुद्गल और भण्डोपकरण।'
१.
प्रस्तुत श्लोक में अपरिग्रह के तीन रूप प्राप्त हैंधन-धान्य आदि का असंग्रह २ आरम्भ का परित्याग ३. निर्ममत्व। परिग्रह की व्याख्या ममत्व - मूर्छा तथा ममत्व के हेतुभूत पदार्थ —- इन दोनों के आधार पर की गई है। दशवेकालिक और तत्त्वार्थसूत्र में वह केवल ममत्व के आधार पर भी की गई है । '
२१. ताड़ना तर्जना, वध, बन्धन (तालणा, तन्नणा, वह बंघ)
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ताड़ना, तर्जना, वध और बन्धन- ये चारों परीषह हैंप्रहार और तिरस्कार से उत्पन्न कष्ट हैं
(१) ताड़ना - हाथ आदि से मारना । *
(२) तर्जना तर्जनी अंगुली दिखा कर या भौंहे चढ़ा कर तिरस्कार करना या डांटना ।
(३) वध - लकड़ी आदि से प्रहार करना ।
(४) बन्धन - मयूर - बन्ध आदि से बांधना । "
२२. यह जो कापोतीवृत्ति (कावोया जा इमा वित्ती)
वृत्तिकार ने कापोतीवृत्ति का अर्थ किया है कबूतर की तरह आजीविका का निर्वहण करने वाला। जिस प्रकार कापोत धान्यकण (टीकाकार ने यहां कीट का भी उल्लेख किया है, परन्तु कबूतर कीट नहीं चुगते) आदि को चुगते समय नित्य सशंक रहता है, उसी प्रकार भिक्षाचर्या में प्रवृत्त मुनि एषणा आदि दोषों के प्रति सशंक होता है।
भिक्षु स्वयं भोजन नहीं पकाता। वह गृहस्थ के द्वारा स्वयं के लिए बनाए हुए भोजन में से उसका कुछ अंश लेकर अपनी आजीविका चलाता है। जैन, बौद्ध और वैदिक साहित्य में भिक्षुओं के भिक्षा का नामकरण पशु-पक्षियों के नामों के आधार पर किए गए हैं। जैसे—माधुकरीवृत्ति, कापोतीवृत्ति, अजगरीवृत्ति आदि ।
६.
७.
८.
वही, पत्र ४५६ वधश्च - लकुटादिप्रहारः ।
वही, पत्र ४५६ : बंधश्च — मयूरबन्धादिः ।
वही, पत्र ४५६, ४५७ कपोताः पक्षिविशेषास्तेषामियं कापोती येयं वृत्तिः -- निर्वहणोपायः, यथा हि ते नित्यशंकिताः कणकीटकादिग्रहणे प्रवर्तन्ते, एवं भिक्षुरप्येषणादोषशंक्येव भिक्षादी प्रवर्तते ।
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