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उत्तरज्झयणाणि
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महाभारत में ब्राह्मण के लिए कापोतीवृत्ति का उल्लेख मिलता है
'कुम्भषान्येरुशिले, कापोती वास्थितास्तथा । यस्मिंश्चैते वसन्त्यहस्तद् राष्ट्रमभिवर्धते ।।'
कुंडे भर अनाज का संग्रह करके अथवा उञ्छशिल के द्वारा अनाज का संग्रह करके 'कापोती' वृति का आश्रय लेने वाले पूजनीय ब्राह्मण जिस देश में निवास करते हैं उस राष्ट्र की वृद्धि होती है।
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गृहस्थ के लिए भी चार वृत्तियों का उल्लेख है । उनमें कापोती चौथी वृत्ति है
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१. कोठे भर अनाज का संगह करना पहली वृत्ति है। २. कुंडे भर अनाज का संग्रह करना दूसरी वृत्ति है। ३. उतने अन्न का संग्रह करना, जो अगले दिन के लिए शेष न रहे, तीसरी वृत्ति है।
४. कापोतीवृत्ति का आश्रय लेकर जीवन निर्वाह करना चौथी वृत्ति है।
कापोतीवृत्ति को उच्छवृत्ति भी कहा गया है। २३. दारुण केश लोच (केसलोओ य दारुणो )
केशलोच— हाथ से नोच कर बालों को उखाड़ना सचमुच बहुत दारुण होता है। लोच क्यों किया जाए ? यह प्रश्न उपस्थित होता है। इसका तर्क संगत समाधान देना सम्भवतः कठिन है। यह एक परंपरा है। इसका प्रचलन क्यों हुआ ? इसका समाधान प्राचीन साहित्य में ढूंढना चाहिए ।
कल्पसूत्र में कहा गया है कि संवत्सरी के पूर्व लोच अवश्य करना चाहिए। उसकी व्याख्या में लोच करने के कुछ हेतु बतलाए गए हैं
अध्ययन १६ : श्लोक ३३ टि० २३
(८) नाई अपने क्षुर या कैंची को सचित्त जल से धोता है। इसलिए पश्चात् कर्म दोष होता है।
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(६) जैन शासन की अवहेलना होती है।
इन हेतुओं को ध्यान में रखते हुए मुनि केशों को हाथ से ही नोंच डाले, यही उसके लिए अच्छा है। इस लोच - विधि में आपवादिक विधि का भी उल्लेख है ।
दिगम्बर - साहित्य में इसके कुछ और हेतु भी बतलाए गए
(१) राग आदि का निराकरण करने,
(२) अपने पौरुष को प्रगट करने,
(३) सर्वोत्कृष्ट तपश्चरण और
(४) लिंग आदि के गुण का ज्ञापन करने के लिए।
राग आदि के निराकरण से इसका सम्बन्ध है--यह अन्वेषण का विषय है। शासन की अवहेलना का प्रश्न सामयिक है। जीवों की उत्पत्ति न हो तथा उनकी विराधना न हो—इसकी सावधानी बरती जा सकती है। इन हेतुओं से लोच की अनिवार्यता सिद्ध करना कठिन कार्य है। इसमें कोई संदेह नहीं को जानने के बाद भी हमें यही मानना पड़ता है कि यह बहुत कि यह कष्ट सहिष्णुता की बहुत बड़ी कसौटी है। इन हेतुओं पुरानी परम्परा है।
दशवेकालिक वृत्ति और मूलाराधना में भी लगभग पूर्वोक्त जैसा ही विवरण मिलता है।
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कायक्लेश संसार - विरक्ति का हेतु है । वीरासन, आसन, लोच आदि उसके मुख्य प्रकार हैं। (१) निर्लेपता, (२) पश्चात्कर्म - वर्जन, (३) पुरः कर्म वर्जन और (४) कष्ट
(१) केश होने पर अप्काय के जीवों की हिंसा होती है। सहिष्णुता —ये लोच से प्राप्त होने वाले गुण हैं।"
(२) भींगने से जूएं उत्पन्न होती हैं। (३) खुजलाता हुआ मुनि उनका हनन कर देता है। (४) खुजलाने से सिर में नख-क्षत हो जाते हैं । (५) यदि कोई मुनि क्षुर (उस्तरे ) या कैंची से बालों को काटता है तो उसे आज्ञा भंग का दोष होता है। (६) ऐसा करने से संयम और आत्मा (शरीर ) दोनों की विराधना होती है।
(७) जूंएं मर जाती हैं।
१. महाभारत: शांतिपर्व २४३ । २४ ।
२. महाभारत: शांतिपर्व २४३ ।२,३ ।
३. सुबोधिका, पत्र १६० १६१ : केशेषु हि अप्कायविराधना, तत्संसर्गाच्च यूकाः समूर्च्छन्ति, ताश्च कण्डूयमानो हन्ति शिरसि नखक्षत वा स्यात्, यदि क्षुरेण मुण्डापयति कर्त्तर्या वा तदाऽऽज्ञाभंगाद्याः दोषाः संयमात्मविराधना, यूकाश्छिद्यन्ते नापितश्च पश्चात्कर्म करोति शासनापभाजना च, ततो लोच एव श्रेयान् ।
४. मूलाचार टीका, पृ० ३७०: जीवसम्मूर्च्छनादिपरिहारार्थं, रागादिनिराकरणार्थं, स्ववीर्यप्रकटनार्थं, सर्वोत्कृष्टतपश्चरणार्थं, लिंगादिगुणज्ञापनार्थं चेति ।
केशों को संसाधित न करने से उनमें जूं, लीख आदि उत्पन्न होते हैं। वहां से उनको हटाना दुष्कर होता है । सोते समय अन्यान्य वस्तुओं से संघट्टन होने के कारण उन जूं-लीखों को पीड़ा हो सकती है। अन्य स्थल से कीटादिक जन्तु भी वहां उनको खाने आते हैं, वे भी दुष्प्रतिहार्य हैं ।
लोच से मुण्डत्व, मुण्डत्व से निर्विकारता और निर्विकारता से रत्नत्रयी में प्रबल पराक्रम फोड़ा जा सकता है।
लोच से आत्म-दमन होता है; सुख में आसक्ति नहीं दशवेकालिक, हारिभद्रीय वृत्ति, पत्र २८-२६ : वीरासण उक्कुडुगासणाइ लोआइओ य विष्णेओ । कायकिलेसो संसारवासनिव्वे अहेउन्ति ।
वीरासणासु गुणा कायनिरोहो दया अ जीवेसु । परलोअमई अ तहा बहुमाणो चेव अन्नेसिं । णिस्संगया य पच्छापुरकम्मविवज्जणं च लोअगुणा । दुक्खसहत्तं नरगादिभावणाए य निव्वेओ ।। तथाऽन्यैरप्युक्तम्
पश्चात्कर्म पुरः कर्मेर्यापथपरिग्रहः । दोषा होते परित्यक्ताः, शिरोलोचं प्रकुर्वता ।।
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