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मृगापुत्रीय
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अध्ययन १६ : श्लोक ६२-६३ टि० ६२-६५
२. दंड-दंड का अर्थ है-दुष्प्रणिधान। इसके तीन लिए तथा 'चन्दन' शब्द मनोज्ञ या प्रीतिकर वस्तुओं के लिए प्रकार हैं
प्रयुक्त है। • मनोदंड-मन का दुष्प्रणिधान।
डॉ० जेकोबी अवचूरीकार के अर्थ पर टिप्पणी करते हुए •वचोदंड-वचन की दुष्पयुक्तता।
लिखते हैं-अवचूरीकार ने 'वास' का अर्थ रहने का स्थान •कायदंड-शारीरिक दुष्प्रवृत्ति।
किया है। परन्तु मुझे लगता है कि चन्दन के साथ 'वासी' शब्द ३. शल्य-शल्य का अर्थ है-अन्तर में घुसा हुआ दोष। का प्रयोग होने से वह कोई दुर्गन्धयुक्त पदार्थ का द्योतक होना इसके तीन प्रकार हैं
चाहिए। .मायाशल्य-मायापूर्ण आचरण।
अवचूरीकार तथा जेकोबी का अर्थ यथार्थ नहीं लगता। •निदानशल्य-ऐहिक और पारलौकिक उपलब्धि के
६३. (अणसणे) लिए धर्म का विनिमय।
_ 'नञ्' के दो अर्थ होते हैं-अभाव और कुत्सा। यहां •मिथ्यादर्शनशल्य-आत्मा का मिथ्यात्वमय दृष्टिकोण।।
'अणसणे' का अर्थ है 'भोजन न मिलने' अथवा 'खराब भोजन (दंड और शल्य के विशेष विवरण के लिए देखें-३१।४ का
मिलने पर। टिप्पण) ४. भय—इसके सात प्रकार हैं
६४. अप्रशस्त द्वारों से आने वाले (अप्पसत्थेहिं दारेहि) १. इहलोक भय ५. वेदना भय
आश्रव के द्वारा कर्म-पुद्गलों का ग्रहण किया जाता है, २. परलोक भय ६. मरण भय
इसलिए वे द्वार कहलाते हैं। आगम-साहित्य में कहीं-कहीं ३. आदान भय ७. अश्लोक भय
आश्रव और कहीं-कहीं आश्रवद्वार का प्रयोग मिलता है। हिंसा ४. अकस्मात् भय
आदि अप्रशस्त द्वार हैं। ६२. वसूले से काटने और चंदन लगाने पर...(वासीचंदणकप्पो) ६५. अध्यात्म-ध्यानयोग के द्वारा प्रशस्त एवं उपशम प्रधान
शान्त्याचार्य के अनुसार 'वासी' और 'चन्दन' शब्द के शासन में रहने वाला (अज्झप्पझाणजोगेहिं पसत्वदमसासणे) द्वारा उनका प्रयोग करने वाले व्यक्तियों का ग्रहण किया गया है। योग शब्द को अध्यात्म और ध्यान दोनों के साथ जोड़ा जा कोई व्यक्ति वसूले से छीलता है, दूसरा चन्दन का लेप करता सकता है-अध्यात्मयोग, ध्यानयोग। जैन शासन दम का शासन है---मनि दोनों पर समभाव रखे। यहां 'कल्प' शब्द का अर्थ है। उसमें दम के प्रशस्त साधन ही मान्य हैं। अप्रशस्त साधनों सदश है। जैन साहित्य में यह साम्ययोग बार-बार प्रतिध्वनित से दम करना जैन साधना पद्धति में वांछनीय नहीं है। होता है
अध्यात्मयोग और ध्यानयोग-ये दम के प्रशस्त साधन हैं। जो चंदणेण बाहु आलिंपइ वासिणा वि तच्छेइ। अध्यात्मयोग के द्वारा व्यक्ति अपनी अन्तश्चेतना तक पहुंचता है संथुणइ जो अनिदइ महारिसाणो तत्थ समभावा॥' और शुद्ध चेतना की अनुभूति का अभ्यास करता है। वह ध्यान
श्रीमद् जयाचार्य ने भगवान् ऋषभ की स्तुति में इस के द्वारा समाधि को सिद्ध कर समय-समय पर उटने वाली साम्ययोग की भावना का इन शब्दों में चित्रण किया है- तरंगों को शान्त और क्षीण करता है। यह बलप्रयोग से किया
वासी चंदण समपण, थिर चित्त जिन ध्याया। जाने वाला दमन नहीं है, किन्तु साधना के द्वारा किया जाने इम तनसार तजी करी, प्रभु केवल पाया। वाला उपशमन है। इस प्रशस्त दम की अवस्था में ही जिनशासन
डॉ० हरमन जेकोबी ने इस पद का अर्थ इस प्रकार या आत्मानुशासन उपलब्ध होता है। किया है.-'अनमोज्ञ और मनोज्ञ' वस्तुओं के प्रति। इनके वृत्तिकार ने अध्यात्म ध्यानयोग का अर्थ-शुभ ध्यान का अनुसार 'वासी' शब्द अमनोज्ञ और अप्रीतिकर वस्तुओं के व्यापार किया है।
१. ठाणं ७।२७।
बृहद्वृत्ति, पत्र ४६५ : वासीचन्दनशब्दाभ्यां च तद्व्यापारकपुरुषावुपलक्षिती, ततश्च यदि किलैको वास्या तक्ष्णोति, अन्यश्च गोशीर्षादिना चन्दनेनालिम्पति, तथाऽपि रागद्वेषाभावतो द्वयोरपि तुल्यः, कल्पशब्दस्येह
सदृशपर्यायत्वात्। ३. उपदेशमाला, ६२। ४. चौवीसी ११५
सेक्रेड बुक्स ऑफ दी ईस्ट, Vol. XLV, Page II. फुटनोट नं०१ Apparently he gives vasa the meaning dwelling but I think the juxtaposition of Candana calls for a word denoting a bad smelling substance. perhaps 'ordure'.
६. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६५ : नाऽभावे कुत्सायां वा, ततश्चाशनस्यभोजनस्याभावे
कुत्सिताशनभावे वा। ७. (क) दसवेआलियं : ३११ पंचासवपरिन्नाया.........
(ख) ठाणं, ५१०६; समवाओ, ५४ : पंच आसवदारा पण्णत्ता... | बृहवृत्ति, पत्र ४६५ : 'अप्रशस्तेभ्यः' प्रशंसाऽनास्पदेभ्यः 'द्वारेभ्यः' कर्मोपार्जनोपायेभ्यो हिंसादिभ्यः । वही, पत्र ४६५ : अध्यात्मेत्यात्मनि ध्यानयोगाः-शुभध्यानव्यापाराअध्यात्मध्यानयोगास्तः, अध्यात्म ग्रहणं तु परस्थानां तेषामकिञ्चित्करत्वाद, अन्यथाऽतिप्रसंगात, प्रशस्तः प्रशंसास्पदो दमश्च-उपशमः शासन च-- सर्वज्ञागमात्मकं यस्य स प्रशस्तदमशासन इति।
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