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आमुख
मगध देश का सम्राट् श्रेणिक एक बार विहार-यात्रा के मेरे सगे-सम्बन्धियों ने मेरी वेदना पर अपार आंसू बहाए। पर लिए मंडितकुक्षि नामक उद्यान में आया। घूम-फिर कर उसने मेरी वेदना को वे न बंटा सके। यह थी मेरी अनाथता। यदि उद्यान की शोभा निहारी। देखते-देखते उसकी आंखें एक इस पीड़ा से मैं मुक्त हो जाऊं तो मैं मुनि बन जाऊं'-इस ध्यानस्थ मुनि पर जा टिकीं। राजा पास में गया। वन्दना की। संकल्प को साथ ले मैं सो गया। जैसे-जैसे रात बीती वैसे-वैसे मुनि के रूप-लावण्य को देख वह अत्यन्त विस्मित हुआ। रोग शान्त होता गया। सूर्योदय होते-होते में स्वस्थ हो गया उसने पूछा-'मुने! भोग-काल में संन्यास-ग्रहण की बात और माता-पिता की आज्ञा लेकर प्रव्रजित होकर सभी प्राणियों समझ में नहीं आती। आप तरुण हैं, भोग भोगने में समर्थ हैं। का नाथ बन गया। उन सबको मुझ से त्राण मिल गया। यह इस अवस्था में आप मुनि क्यों बने ?' मुनि ने कहा—'राजन्! है मेरी सनाथता। मैंने आत्मा पर शासन किया-यह है मेरी में अनाथ हूं। मेरा कोई भी नाथ नहीं है, त्राण नहीं है। सनाथता। मैं श्रामण्य का विधिपूर्वक पालन करता हूं--यह है इसलिए मैं मुनि बना हूं।' राजा ने मुस्कराते हुए कहा- मेरी सनाथता।' 'शरीर-सम्पदा से आप ऐश्वर्यशाली लगते हैं फिर अनाथ राजा ने सनाथ और अनाथ का यह अर्थ पहली बार कैसे? कुछ भी हो मैं आपका नाथ बनता हूं। आप मेरे साथ सुना। उसके ज्ञान-चक्षु खुले। वह बोला-'महर्षे ! आप ही चलें। सुखपूर्वक भोग भोगें। मुने! मनुष्य-भव बार-बार नहीं वास्तव में सनाथ और सबान्धव हैं। मैं आपसे धर्म का मिलता।' मुनि ने कहा- 'तुम स्वयं अनाथ हो। मेरे नाथ कैसे अनुशासन चाहता हूं।' (श्लोक ५५) बन सकोगे?' राजा को यह वाक्य तीर की भांति चुभा। उसने मुनि ने उसे निर्ग्रन्थ धर्म की दीक्षा दी। वह धर्म में कहा--'मुने! आप झूठ क्यों बोलते हैं। मैं अपार सम्पत्ति का अनुरक्त हो गया। स्वामी हूं। मेरे राज्य में मेरी हर आज्ञा अखण्ड रूप से प्रवर्तित इस अध्ययन में अनेक विषय चर्चित हुए हैंहोती है। मेरे पास हजारों हाथी, घोड़े, रथ, सुभट और १. आत्मकर्तृत्व के लिए ३६, ३७ एवं ४८ श्लोक नौकर-चाकर हैं। सारी सुख-सामग्री उपनीत है। मेरे आश्रय
मननीय हैं। में हजारों व्यक्ति पलते हैं। ऐसी अवस्था में मैं अनाथ कैसे ?' २. ४४वें श्लोक में विषयोपपन्न धर्म के परिणामों का मुनि ने कहा- 'तुम अनाथ का अर्थ नहीं जानते और नहीं
दिग्दर्शन है। जैसे पीया हुआ कालकूट विष, अविधि जानते कि कौन व्यक्ति कैसे सनाथ होता है और कैसे अनाथ ?'
से पकड़ा हुआ शस्त्र और अनियन्त्रित वेताल मुनि ने आगे कहा---'मैं कौशाम्बी नगरी में रहता था।
विनाशकारी होता है, वैसे ही विषयों से युक्त धर्म मेरे पिता अपार धन-राशि के स्वामी थे। हमारा कुल सम्पन्न
भी विनाशकारी होता है। था। मेरा विवाह उच्च कुल में हुआ था। एक बार मुझे असह्य ३. द्रव्य-लिंग से लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती, इसके अक्षि-रोग उत्पन्न हुआ। उसको मिटाने के लिए नानाविध
लिए ४१ से ५० श्लोक मननीय हैं। प्रयत्न किए गए। पिता ने अपार धन-राशि का व्यय किया। (मिलाइए-सुत्तनिपात—'महावग्ग'—पवज्जा सुत्त।) सभी परिवार वालों ने नानाविध प्रयत्न किए, पर सब व्यर्थ ।
इस अध्या
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