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मृगापुत्रीय
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अध्ययन १६ : श्लोक २४ टि० १६
गरद्रुम, रम्यफल, कुपाक, कालकूटक-इन सबको पर्यायवाची यह एक गाथा है। दूसरी गाथा में 'खंति' के स्थान पर माना है। उसमें कारस्कर वृक्ष का जो वर्णन मिलता है, उसके 'मुत्ति' शब्द आएगा शेष ज्यों का त्यों रहेगा। तीसरे में अनुसार किम्पाक कुचले का वृक्ष है। कारस्कर वृक्ष मध्यम 'अज्जव' आएगा। इस प्रकार १० गाथाओं में दस धर्मों के आकार का होता है। वह प्रायः वनों में उगता है। उसके पत्ते नाम क्रमशः आएंगे। फिर ग्यारहवीं गाथा में 'पुढवि' के स्थान पान के समान चौड़े और फल नारंगी के समान होते हैं। उसके पर 'आउ' शब्द आएगा। पुढवि के साथ १० धर्मों का बीज कुचला कहलाते हैं। उसका पका फल विषद और पाक में परिवर्तन हुआ था उसी प्रकार 'आउ' शब्द के साथ भी होगा। मधुर होता है।
फिर 'आउ' के स्थान पर क्रमशः 'तेउ', 'वाउ', 'वणस्सइ', वनस्पतिसृष्टि में किम्पाकफल का वर्णन इस प्रकार है- 'बेइंदिय', तेइंदिय, 'चतुरिन्दिय', 'पंचेंदिय' और अजीव-ये किंपाकफल अपक्व अवस्था में नीले रंग का और पकने पर दश शब्द आएंगे। प्रत्येक के साथ दस धर्मों का परिवर्तन होने नारंगी रंग का होता है। उसकी गिरी सहज और मधुर होती है। से (१०x१०) एक सौ गाथाएं हो जाएगी। इस प्रकार पांच उसे पक्षी और बन्दर बड़े चाव से खाते हैं। गिरी के अतिरिक्त इंद्रियों की (१००४५) पांच सौ गाथाएं होंगी। फिर ५०१ में उसके सब अंग कड़वे होते हैं। उसका सारा फल विषैला होता 'आहार सन्ना' के स्थान पर 'भयसन्ना' फिर 'मेहुणसन्ना' है। अंग्रेजी में इसके बीजों को स्ट्रिक्निन नक्सवोमिका (Strychnine और 'परिग्गहसन्ना' शब्द आएंगे। एक संज्ञा के ५०० होने में Nuxvomica) कहते हैं। वे बटन के आकार वाले, मखमल की ४ संज्ञा के (५००x४) २००० होंगे। फिर 'मणसा' शब्द का तरह मुलायम, अति कठोर और बीच में रकाबी जैसे गड्ढे वाले परिवर्तन होगा। 'मणसा' के स्थान पर 'वयसा' फिर 'कायसा' होते हैं।
आएगा। एक-एक काय का २००० होने से तीन कायों के १६. हजारों गुण (गुणाणं तु सहस्साई)
(२०००४ ३) ६००० होंगे। फिर 'करंति' शब्द में परिवर्तन वृत्तिकार ने यहां गुण का अर्थ-मुनि जीवन के उपकारी होगा। 'करंति' के स्थान पर 'कारयंति' और 'समणजाणति' शीलाङ्ग गुण किया है। उनकी संख्या अठारह हजार है- शब्द आएंगे। एक-एक के ६००० होने से तीनों के (६०००४३)
जे गो कति मणसा, णिज्जिय आहारसन्ना सोइंदिये। १८,००० हो जाएंगे। पुढविकायारंभ खंतिजुत्ते ते मुणी वंदे।
ये अठारह हजार शील के अंग हैं। इन्हें रथ से निम्न प्रकार उपमित किया जाता है
जे णो करंति
जे णो कारयंति
जे णो समणुजाणंति ६....
मणसा
कायसा
वयसा २...
णिज्जिय णिज्जिय णिज्जिय आहारसन्ना भयसन्ना | मेहुणसन्ना ५०० |५०० ५००
|णिज्जिय परिग्गहसन्ना ५००
स्पर्शनेन्द्रिय
श्रोत्रेन्द्रिय चक्षुरिन्द्रिय | ध्राणेन्द्रिय |रसनेन्द्रिय १०० |१०० १०० १००
१००
पृथिवी १०
अपू
तेजस् १०
वायु १०
वनस्पति १०
द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पंचेन्द्रिय १० |१० 1१० १०
१०
क्षान्ति
मुक्ति
आर्जव
मार्दव
लाघव
सत्य
संयम
तप
ब्रह्मचर्य अकिंचनता
1१०
१.
शालिग्रामनिघण्टुभूषणम् (बृहन्निघण्टु रत्नाकरान्तर्गती, सप्तमाष्टम भाग) २. वनस्पतिसृष्टि (गुज०) स्कन्ध बीजो पृ०६१। पृ०६००।
३. बृहद्वृत्ति, पत्र ४५६ : गुणानां-श्रामण्योपकारकाणां शीलाइगरूपाणाम् । कारस्करस्तु किपाको विषतिन्दुर्विषद्रुमः । गरदुमो रम्यफलः कुपाकः कालकूटकः ।।
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