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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन १६ : श्लोक ४३-५१
"पुत्र ! तू मनुष्य सम्बन्धी पांच इन्द्रियों के भोगों का भोग कर। फिर भुक्त-भोगी होकर मुनि-धर्म का आचरण करना।"
मृगापुत्र ने कहा--"माता-पिता ! जो आपने कहा वह सही है किन्तु जिस व्यक्ति की ऐहिक सुखों की प्यास बुझ चुकी है उसके लिए कुछ भी दुष्कर नहीं
“मैंने भयंकर शारीरिक और मानसिक वेदनाओं को अनन्त बार सहा है और अनेक बार दुःख एवं भय का अनुभव किया है।"
४३. मुंज माणुस्सए भोगे
पंचलक्खणए तुम। भुत्तभोगी तओ जाया!
पच्छा धम्मं चरिस्ससि।। ४४.तं बिंतम्मापियरो
एवमेयं जहा फुडं। इह लोए निप्पिवासस्स
नत्थि किंचि वि दुक्करं।। ४५.सारीरमाणसा चेव
वेयणाओ अणंतसो। मए सोढाओ भीमाओ
असई दुक्खभयाणि य।। ४६.जरामरणकंतारे
चाउरते भयागरे। मए सोढाणि भीमाणि
जम्माणि मरणाणि य।। ४७.जहा इहं अगणी उण्हो
एत्तोणतगुणे तहिं। नरएसु वेयणा उण्हा
अस्साया वेइया मए।। ४८.जहा इमं इहं सीयं
एत्तोणंतगुणं तहिं। नरएसु वेयणा सीया
अस्साया वेइया मए।। ४६.कंदंतो कंदुकुंभीसु
उड्ढपाओ अहोसिरो। हुयासणे जलंतम्मि
पक्कपुवो अणंतसो।। ५०.महादवग्गिसंकासे
मरुम्मि वइरवालुए। कलंबवालुयाए य
दड्ढपुवो अणंतसो।। ५१. रसंतो कंदुकुंभीसु
उड्ढे बद्धो अबंधवो। करवत्तकरकयाईहिं छिन्नपुचो अणंतसो।।
भुक्ष्व मानुष्यकान् भोगान् पंचलक्षणकान् त्वम्। भुक्तभोगी ततो जात! पश्चाद् धर्मं चरेः।। तद् ब्रूतो अम्बापितरौ एवमेतद् यथास्फुटमा इह लोके निष्पिपासस्य नास्ति किंचिदपि दुष्करम् । शारीरमानस्यश्चैव वेदनास्तु अनन्तशः। मया सोढा भीमाः असकृद् दुःखभयानि च।। जरामरणकान्तारे चतुरन्ते भयाकरे। मया सोढानि भीमानि जन्मानि मरणानि च।। यथेहाग्निरुष्णः इतोऽनन्तगुणस्तत्र। नरकेषु वेदना उष्णा असाता वेदिता मया।। यथेदमिह शीतम् इतोऽनन्तगुणं तत्र। नरकेषु वेदना शीता असाता वेदिता मया।।
“मैंने चार अन्त वाले" और भय के आकर जन्म-मरणरूपी जंगल में भयंकर जन्म-मरणों को सहा है।"
"जैसे यहां अग्नि उष्ण है, इससे अनन्त गुना अधिक दुःखमय उष्ण-वेदना वहां नरक में मैंने सही है।"३२
“जैसे यहां यह शीत है, इससे अनन्त गुना अधिक दुःखमय शीत-वेदना वहां नरक में मैंने सही है।"
“पकाने के पात्र में, जलती हुई अग्नि में पैरों को ऊंचा और सिर को नीचा कर आक्रन्दन करता हुआ मैं अनन्त बार पकाया गया हूं।"
क्रन्दन् कन्दुकुम्भीषु ऊर्ध्वपादोऽधःशिराः। हुताशने उचलति पक्वपूर्वोऽनन्तशः।। महादवाग्निसंकाशे मरौ वज्रबालुकायाम्। कदम्बबालुकायां च दग्धपूर्वोऽनन्तशः।।
“महा दवाग्नि तथा मरु-देश और वज़बालुका जैसी कदम्ब नदी के बालु में५ मैं अनन्त बार जलाया गया हूं।"
रसन् कन्दुकुम्भीषु ऊर्ध्वं बद्धोऽबान्धवः। करपत्रक्रकचादिभिः छिन्नपूर्वोऽनन्तशः।।
"मैं पाक-पत्र में त्राण रहित होकर आक्रन्द करता हुआ ऊंचा बांधा गया और करवत और आरा आदि के द्वारा अनन्त बार छेदा गया हूं।" ३५
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