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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन १६ : श्लोक ७६-८७ ७६.को वा से ओसहं देई? को वा तस्मै औषधं दत्ते? “कौन उसे औषध देता है ? कौन उससे सुख की
को वा से पुच्छई सुहं ?। को वा तस्य पृच्छति सुखम् ?। बात पूछता है ? कौन उसे खाने-पीने को भक्त-पान को से भत्तं च पाणं च कस्तस्मै भक्तं च पानं च लाकर देता है ?"५५ आहरित्त पणामए ?।।
आहृत्याऽर्पयेत् ?।। ५०.जया य से सुही होइ यदा च स सुखी भवति "जब वह स्वस्थ हो जाता है तब गोचर में जाता है। तया गच्छइ गोयरं।। तदा गच्छति गोचरम्।
खाने-पीने के लिए लता-निकुंजों और जलाशयों भत्तपाणस्स अट्ठाए भक्तपानस्याऽर्थाय
में'६ जाता है।" वल्लराणि सराणि य।। वल्लराणि सरांसि च।। ८१.खाइत्ता पाणियं पाउं
खादित्वा पानीयं पीत्वा “लता-निकुंजों और जलाशयों में खा-पीकर वह वल्लरेहिं सरेहि वा। वल्लरेषु सरस्सु वा।
मृगचर्या (कुदान) के द्वारा मृगचर्या (स्वतन्त्र-विहार) मिगचारियं चरित्ताणं मृगचारिकां चरित्वा
को चला जाता है।"५७ गच्छई मिगचारियं ।।
गच्छति मृगचारिकाम्।। ८२.एवं समुट्ठिओ भिक्खू एवं समुत्थितो भिक्षुः
“इसी प्रकार संयम के लिए उठा हुआ भिक्षु स्वतंत्र एवमेव अणेगओ। एवमेवाऽनेकगः।
विहार करता हुआ मृगचर्या का आचरण कर मिगचारियं चरित्ताणं मृगचारिकां चरित्वा
ऊंची दिशा-मोक्ष को चला जाता है।" उड्ढं पक्कमई दिसं।। ऊर्जा प्रक्रामति दिशम् ।। ८३.जहा मिगे एग अणेगचारी यथा मृग एकोऽनेकचारी "जिस प्रकार हरिण अकेला अनेक स्थानों से भक्त-पान
अणेगवासे धुवगोयरे य। अनेकवासो धुवगोचरश्च। लेने वाला, अनेक स्थानों में रहने वाला ओर गोचर एवं मुणी गोयरियं पविट्ठे एवं मुनिर्गोचर्या प्रविष्टः से ही जीवन-यापन करने वाला होता है, उसी नो हीलए नो विय खिंसएज्जा।। नो हीलयेन्नो अपि च खिसयेत्।। प्रकार गोचर-प्रविष्ट मुनि जब भिक्षा के लिए जाता
है तब किसी की अवज्ञा और निन्दा नहीं करता।" १४.मिगचारियं चरिस्सामि मृगचारिकां चरिष्यामि (मृगापुत्र ने कहा-) “मैं मृगचर्या का आचरण
एवं पुत्ता! जहासुहं। एवं पुत्र! यथासुखम्। करूंगा।” (माता-पिता ने कहा--) “पुत्र ! जैसे तुम्हें अम्मापिऊहिंणुण्णाओ। अम्बापितृभ्यामनुज्ञातः
सुख हो वैसे करो।" इस प्रकार माता-पिता की जहाइ उवहिं तओ।। जहात्युपधिं ततः।।
अनुमति पाकर वह उपथि को छोड़ रहा है। ८५.मियचारियं चरिस्सामि मृगचारिकां चरिष्यामि "मैं तुम्हारी अनुमति पाकर सब दुःखों से मुक्ति सव्वदुक्खविमोक्खणिं। सर्वदुःखविमोक्षणीम्।
दिलाने वाली मृगचर्या का आचरण करूंगा।" तुब्मेहिं अम्मपुण्णाओ युवाभ्यामम्ब! अनुज्ञातः (माता-पिता ने कहा-) “पुत्र ! जैसे तुम्हें सुख हो
गच्छ पुत्त ! जहासुहं।। गच्छ पुत्र! यथासुखम्।। वैसे करो।" ८६.एवं सो अम्मापियरो
एवं सोऽम्बापितरौ
"इस प्रकार वह नाना उपायों से माता-पिता को अणुमाणित्ताण बहुविहं। अनुमान्य बहुविधम्।
अनुमति के लिए राजी कर ममत्व का छेदन कर ममत्तं छिंदई ताहे ममत्वं छिनत्ति तदा
रहा है जैसे महानाग कांचुली का छेदन करता है।" महानागो ब्व कंचुयं ।। महानाग इव कंचुकम्।। ८७.इडिं वित्तं च मित्ते य ऋद्धिं वित्तं च मित्राणि च “ऋद्धि, धन, मित्र, पुत्र, कलत्र और ज्ञाति-जनों को पुत्तदारं च नायओ। पुत्रदारांश्च ज्ञातीन्।
कपड़े पर लगी हुई धूलि की भांति झटकाकर वह रेणुयं व पडे लग्गं रेणुकमिव पटे लग्नं
निकल गया-प्रव्रजित हो गया।" निर्बुणित्ताण निग्गओ।। निय निर्गतः।।
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