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६. वित
उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन १६ : श्लोक ८-१५ (देवलोग चुओ संतो (देवलोकच्युतः सन्
(देवलोक से च्युत हो मनुष्य-जन्म में आया। माणुसं भवमागओ। मानुषं भवमागतः।
समनस्क-ज्ञान उत्पन्न हुआ। तब पूर्व-जन्म की सन्निनाणे समुप्पण्णे संज्ञिज्ञाने समुत्पन्ने
स्मृति हुई।) जाइं सरइ पुराणयं ।।) जातिं स्मरति पौराणिकीम् ।।) जाईसरणे समुप्पन्ने जातिस्मरणे समुत्पन्ने
जाति-स्मृति ज्ञान उत्पन्न होने पर महर्द्धिक मृगापुत्र मियापुत्ते महिड्ढिए। मृगापुत्रो महर्द्धिकः।
को पूर्व-जन्म और पूर्व-कृत श्रामण्य की स्मृति हो सरई पोराणियं जाई स्मरति पौराणिकी जाति
आई। सामण्णं च पुराकयं।। श्रामण्यं च पुराकृतम् ।। विसएहि अरज्जंतो विषयेष्वरज्यन्
अब विषयों में उसकी आसक्ति नहीं रही। वह संयम रज्जंतो संजमम्मि य। रज्यन् संयमे च।
में अनुरक्त हो गया। माता-पिता के समीप आ अम्मापियरं उवागम्म अम्बापितरावुपागम्य
उसने इस प्रकार कहाइमं वयणमब्बवी।।
इदं वचनमब्रवीत्।। १०. सुयाणि मे पंच महव्वयाणि श्रुतानि मया पंच महाव्रतानि “मैंने पांच महाव्रतों को सुना है। नरक और तिर्यंच नरएसु दुक्खं च तिरिक्खजोणिसु। नरकेषु दुःखं च तिर्यग्योनिषु। योनियों में दुःख है। मैं संसार-समुद्र से निर्विण्ण-काम
निविण्णकामो मि महण्णवाओ निर्विणकामोऽस्मि महार्णवात् (विरक्त) हो गया हूं। मैं प्रव्रजित होऊंगा। माता ! अणुजाणह पव्वइस्सामि अम्मो!।। अनुजानीत प्रव्रजिष्यामि अम्ब!|| मुझे आप अनुज्ञा दें।" ११. अम्मताय ! मए भोगा
अम्ब-तात! मया भोगाः "माता-पिता ! मैं भोगों को भोग चुका हूं। ये भोग भुत्ता विसफलोवमा।
भुक्ता विषफलोपमाः। विष-तुल्य हैं, इनका परिणाम कटु होता है और ये पच्छा कडुयविवागा पश्चात् कटुकविपाकाः
निरन्तर दुःख देने वाले हैं।"१२ अणुबंधदुहावहा।।
अनुबन्धदुःखावहाः।। १२. इमं सरीरं अणिच्चं
इदं शरीरमनित्यं
“यह शरीर अनित्य है, अशुचि है, अशुचि से असुई असुइसंभवं। अशुच्यशुचिसंभवम् ।
उत्पन्न है, आत्मा का यह अशाश्वत आवास है तथा असासयावासमिणं अशाश्वतावासमिदं
दुःख और क्लेशों का भाजन है।" दुक्खकेसाण भायणं ।। दुःखक्लेशानां भाजनम् ।। १३. असासए सरीरम्मि
अशाश्वते शरीरे
“इस अशाश्वत-शरीर में मुझे आनन्द नहीं मिल रई नोवलभामहं। रतिं नोपलभेऽहम्।
रहा है। इसे पहले या पीछे जब कभी छोड़ना है। पच्छा पुरा व चइयव्वे पश्चात् पुरा वा त्यक्तव्ये यह पानी के बुलबुले के समान नश्वर है।" फेणबुब्बुयसन्निभे।।
फेनबुदबुदसन्निभे।। १४. माणुसत्ते असारम्मि
मानुषत्वे असारे
“मनुष्य-जीवन असार है, व्याधि और रोगों का" वाहीरोगाण आलए। व्याधिरोगाणामालये।
घर है, जरा और मरण से ग्रस्त है। इसमें मुझे एक जरामरणपत्थम्मि जरामरणग्रस्ते
क्षण भी आनन्द नहीं मिल रहा है।" खणं पि न रमामहं।। क्षणमपि न रमेऽहम् ।। १५. जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं जन्म दुःखं जरा दुःखं “जन्म दुःख है, बुढ़ापा दुःख है, रोग दुःख है और रोगा य मरणाणि य। रोगाश्च मरणानि च।
मृत्यु दुःख है। अहो! संसार दुःख ही है, जिसमें अहो दुक्खो हु संसारो अहो दुःखं खलु संसारः जीव क्लेश पा रहे हैं।" जत्थ कीसंति जंतवो।। यत्र क्लिश्यन्ति जन्तवः।।
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