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निर्युक्तिकार के अनुसार इस अध्ययन का नाम 'मिगपुत्तिज्जं ' —– 'मृगापुत्रीय' है । मृगा रानी के पुत्र से यह अध्ययन समुत्पन्न है, इसलिए इसका नाम 'मृगापुत्रीय' रखा गया है।' समवायांग के अनुसार इसका नाम 'मियचारिया' 'मृगचारिका' है।' यह नामकरण प्रतिपाद्य के आधार पर है ।
सुग्रीव नगर में बलभद्र नाम का राजा राज्य करता था । उसकी पटरानी का नाम मृगावती था। उसके एक पुत्र था । माता-पिता ने उसका नाम बलश्री रखा। वह लोक में मृगापुत्र के नाम से प्रसिद्ध हुआ। युवा हुआ। पाणिग्रहण सम्पन्न हुआ । एक बार वह अपनी पत्नियों के साथ प्रासाद के झरोखे में बैठा हुआ क्रीड़ा कर रहा था। मार्ग में लोग आ जा रहे थे । स्थान-स्थान पर नृत्य संगीत की मण्डलियां आयोजित थीं । एकाएक उसकी दृष्टि राजमार्ग पर मन्द गति से चलते हुए निर्ग्रन्थ पर जा टिकी। मुनि के तेजोदीप्त ललाट, चमकते हुए नेत्रों तथा तपस्या से कृश शरीर को वह अनिमेषदृष्टि से देखता रहा । मन आलोकित हुआ । चिन्तन तीव्र हुआ। उसने सोचा“ अन्यत्र भी मैंने ऐसा रूप देखा है।” इन विचारों में वह लीन हुआ और उसे जाति-स्मृति ज्ञान उत्पन्न हो गया। पूर्व जन्म की सारी घटनाएं प्रत्यक्ष हो गईं। उसने जान लिया कि पूर्व-भव में वह श्रमण था। इस अनुभूति से उसका मन वैराग्य से भर गया । वह अपने माता-पिता के पास आया और बोला- “ तात ! मैं प्रव्रज्या लेना चाहता हूं। शरीर अनित्य है, अशुचिमय है, दुःख और क्लेशों का भाजन है। मुझे इसमें कोई रस नहीं है। जिसे आज या कल छोड़ना ही होगा, उसे मैं अभी छोड़ देना चाहता हूं। संसार में दुःख ही दुःख है। जन्म दुःख है, मरण दुःख है, जरा दुःख है। सारे भोग आपात भद्र और परिणाम - विरस हैं।" (श्लोक ६-१५)
माता-पिता ने उसे समझाया और श्रामण्य की कठोरता और उसकी दुश्चरता का दिग्दर्शन कराया। उन्होंने कहा
“पुत्र ! श्रामण्य दुश्चर है। मुनि को हजारों गुण धारण करने होते हैं। उसे जीवन भर प्राणातिपात से विरति करनी होती है। इसी प्रकार मृषावाद, अदत्तादान, अब्रह्मचर्य और परिग्रह का विवर्जन करना होता है। रात्रि-भोजन का सर्वथा त्याग अत्यन्त
9. उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गाथा ४०८ : मिगदेवीपुत्ताओ, बलसिरिनामा समुट्टियं जम्हा । तम्हा मिगपुत्तिज्जं, अज्झयणं होइ नायव्वं ।।
आमुख
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कठिन है । अनेक कष्ट सहने पड़ते हैं ।"
“भिक्षाचर्या दुःखप्रद होती है । याचना और अलाभ- दोनों को सहना दुष्कर है । साधु को कुक्षि-संबल होना पड़ता है।"
“तुम सुकोमल हो, श्रामण्य अत्यन्त कठोर है। तुम उसका पालन नहीं कर सकोगे। दूसरी बात है कि यह श्रामण्य यावज्जीवन का होता है। इसमें अवधि नहीं होती । श्रामण्य बालुका- कवल की तरह निःस्वाद और असि धारा की तरह दुश्चर है। इसका पालन करना लोहे के यव चबाने जैसा है।” ( श्लोक २४-३८)
इस प्रकार मृगापुत्र और उसके माता-पिता के बीच सुन्दर संवाद चलता है। माता-पिता उसे भोग की ओर आकृष्ट करना चाहते हैं और वह साधना की ओर अग्रसर होना चाहता है। माता-पिता ने श्रामण्य को जिन उपमाओं से उपमित किया है वे संयम की गुरुता और दुष्करता को प्रमाणित
करती हैं।
मृगापुत्र का आत्म-विश्वास मूर्त हो जाता है और वह इन सबको आत्मसात् करने के लिए अपने आपको योग्य बताता है।
अन्त में माता-पिता कहते हैं- “ वत्स ! जो कुछ तू कहता है वह सत्य है परंतु श्रामण्य का सबसे बड़ा दुख हैनिष्प्रति-कर्मता अर्थात् रोग की चिकित्सा न करना।” (श्लोक ७५)
मृगापुत्र ने कहा – “ तात ! अरण्य में बसने वाले मृग आदि पशुओं तथा पक्षियों की कौन चिकित्सा करता है ? कौन उनको औषधि देता है ? कौन उनकी सुख-पृच्छा करता है ? कौन उनको भक्त-पान देता है ? मैं भी उन्हीं की भांति रहूंगा मृगचारिका से अपना जीवन बिताऊंगा।” (श्लोक ७६-८५)
माता-पिता ने मृगापुत्र की बातें सुनी। उसकी संयम-ग्रहण की दृढ़ता से पराभूत हो उन्होंने प्रव्रज्या की आज्ञा दे दी । मृगापुत्र मुनि बन गया। उसने पवित्रता से श्रामण्य का पालन किया और अन्त में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो गया।
२. समवाओ, समवाय ३६ ।
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