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संजयीय
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अध्ययन १८ : श्लोक ४५-५२ टि० २६-३३
पैदल कैसे चल सकेंगे? मेरे पास प्रज्ञप्ति विद्या है। आप इसे था जयंती। उसके पुत्र का नाम था नन्दन। वह सातवां बलदेव साध लें। राजा ने विद्या की साधना की। विद्या सिद्ध होने पर था। उसका छोटा भाई शेषवती का पुत्र दत्त वासुदेव था। उसके प्रभाव से वह अपने नगर पहुंच गया।
सुखबोधा के इस मंतव्य का कोई प्राचीन आधार ज्ञात नहीं राजा को प्राप्त कर लोगों ने महोत्सव मनाया। सामंतों ने है। राजा से पूर्व वृत्तांत पूछा। राजा ने सारी बात बताई। सब डॉ० हर्मन जेकोबी ने फुटनोट में इस मत को उद्धृत आश्चर्य से भर गए।
किया है। राजा पांच-पांच दिनों से उसी पर्वत पर कनकमाला से ३०. सिर देकर सिर (मोक्ष) को (सिरसा सिरं) मिलने जाया करता था। वह कुछ दिन उसके साथ बिता कर सिरसा'—सिर दिए बिना अर्थात् जीवन-निरपेक्ष हुए अपने नगर को लीट आता। इस प्रकार काल बीतने लगा। लोग बिना साध्य की उपलब्धि नहीं होती। 'सिरसा'-इस शब्द में कहते राजा 'नग' अर्थात् पर्वत पर है। उसके बाद उसका 'इष्टं साधयामि पातयामि वा शरीरम' की प्रतिध्वनि है।। नाम 'नग्गति' पड़ा।
शान्त्याचार्य ने इसके साथ में 'इव' और जोड़ा है। एक दिन राजा भ्रमण करने निकला। उसने एक पुष्पित 'सिर'-शरीर में सबसे ऊंचा स्थान सिर का है। लोक में आम्र वृक्ष देखा। एक मञ्जरी को तोड़ वह आगे निकला। साथ सबसे ऊंचा मोक्ष है। इसी समानता से सिर-स्थानीय मोक्ष को वाले सभी व्यक्तियों ने मञ्जरी, पत्र, प्रवाल, पुष्प, फल आदि 'सिर' कहा है। सारे तोड डाले। आम्र का वृक्ष अब केवल ढूंठ मात्र रह गया। ३१. (श्लोक ३४-५०) राजा पुनः उसी मार्ग से लौटा। उसने पूछा---'वह आम्र-वृक्ष
इन सतरह श्लोकों में जिनशासन में दीक्षित होने वाले कहां है। मंत्री ने अंगुली के इशारे से उस लूंठ की ओर संकेत राजाओं की तालिका दी गई है। इनमें दस चक्रवर्ती और शेष नौ किया। राजा आम की उस अवस्था को देख अवाक् रह गया। माण्डलिक राजे हैंउसे कारण ज्ञात हुआ। उसने सोचा-'जहां ऋद्धि है, वहां
चक्रवर्ती शोभा है परन्तु ऋद्धि स्वभावतः चंचल होती है।' इन विचारों से
१. भरत
१. दशार्णभद्र वह संबुद्ध हो गया।
२. सगर
२. करकण्डु २९. श्वेत (सेओ)
३. मघवा
३. द्विमुख प्रस्तुत श्लोक में आया हुआ 'सेओ' (श्वेत) काशीमंडल के
४. सनत्कुमार
४. नमिराज अधिपति का नाम है। स्थानांग सूत्र में यह उल्लेख है कि
५. शांतिनाथ
५. नग्गति भगवान महावीर ने आठ राजाओं को प्रव्रजित किया था। उनमें एक 'सेय' (श्वेत) नाम का राजा था। स्थानांग की टीका में उसे
६. कुन्थु
६. उद्रायण ७. अर
७. श्वेत आमलकल्पा नगरी का राजा बतलाया गया है। उसकी रानी का नाम धारणी था। एक बार भगवान महावीर जब आमलकल्पा
८. महापद्म
८. विजय नगरी में आए तब राजा-रानी—दोनों प्रवचन सुनने गए और
६. हरिषेण
६. महाबल प्रव्रजित हो गए। स्थानांग के आधार पर काशीराज का नाम
१०. जय श्वेत था, यह संभावना की जा सकती है।
३२. अहेतुवादों के द्वारा (अहेऊहिं) उत्तराध्ययन की बृहद्वृत्ति में 'सेओ' का अर्थ श्रेयस्
बृहद्वृत्ति में अहेतु का अर्थ कुहेतु किया गया है। जो अतिप्रशस्य किया है। डॉ० हर्मन जेकोबी ने भी इसका अपने साध्य की सिद्धि करने में सक्षम होता है वह साधन अनुसरण कर सेय का अनुवाद Best किया है और इसे सत्य अथवा हेतु कहलाता है। एकांतदृष्टि वाले जितने विचार हैं वे का विशेषण माना है।
अपने साध्य की सिद्धि करने में सफल नहीं होते, इसलिए सुखबोधा में काशीराज का परिचय सातवें बलदेव नन्दन एकांतवादी दृष्टिकोण को अहेतु कहा जा सकता है। के रूप में दिया गया है। उनका जीवनवृत्त इस प्रकार है- ३३. अत्यन्त युक्तियुक्त (अच्चंतनियाणखमा) वाराणसी नगरी में अग्निशिख राजा था। उसकी रानी का नाम शान्त्याचार्य ने इसके दो अर्थ किए हैं
१. सुखबोधा, पत्र १४१-१४५। २. ठाणं, ८१४१ ३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४०८। ४. बृहवृत्ति, पत्र ४४८ : श्रेयसि-अतिप्रशस्ये। ५. जैनसूत्राज, उत्तराध्ययन : १८४६, पृ० ८७। ६. सुखबोधा, पत्र २५५ ।
७. जैनसूत्राज, उत्तराध्ययन : १८४६, पृ० ८७, फुट नोट ४ । ८. बृहद्वृत्ति, पत्र ४४६ : शिरसेव-शिरसा शिरःप्रदानेनेव जीवितनिरपेक्षमिति। ६. वही, पत्र ४४७ : "शिरं' ति शिर इव शिरः सर्वजगदुपरिवर्तितया
मोक्षः। १०. वही, पत्र ४४६ : अहेतुभिः क्रियावाद्यादिपरिकल्पितकुहेतुभिः ।
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