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संजयीय
साथियों से कहता- -'मुझे खुजला दो।' ऐसा करने से उसका नाम 'करकण्डु' हुआ।
करकण्डु उस साध्वी के प्रति अनुराग रखता था । वह साध्वी मोहवश उसे भिक्षा में प्राप्त लड्डू आदि दिया करती थी। बालक बड़ा हुआ। वह श्मशान की रक्षा करने लगा। वहां पास ही बांस का वन था। एक बार दो साधु उस ओर से निकले। एक साधु दण्ड के लक्षणों को जानता था। उसने कहा'अमुक प्रकार का दण्ड जो ग्रहण करेगा, वह राजा होगा।' करकण्डु तथा एक ब्राह्मण के लड़के ने यह बात सुनी। ब्राह्मण कुमार तत्काल गया और लक्षण वाले बांस का दण्ड काटा। करकण्डु ने कहा - ' यह बांस मेरे श्मशान में बढ़ा है, अतः इसका मालिक मैं हूं।' दोनों में विवाद हुआ न्यायाधीश के पास गए। उसने न्याय देते हुए करकण्डु को दण्ड दिला दिया।
ब्राह्मण कुपित हुआ और उसने चाण्डाल परिवार को मारने का षड्यन्त्र रचा। चाण्डाल को इसकी जानकारी मिल गई। वह अपने परिवार को साथ ले काञ्चनपुर चला गया।
काञ्चनपुर का राजा मर चुका था। उसके पुत्र नहीं था । राजा चुनने के लिए घोड़ा छोड़ा गया। घोड़ा सीधा वहीं जा रुका, जहां चाण्डाल विश्राम कर रहा था। घोड़े ने कुमार करकण्डु की प्रदक्षिणा की और वह उसके निकट ठहर गया। सामंत आए। कुमार को ले गए। राज्याभिषेक हुआ। वह काञ्चनपुर का राजा
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अध्ययन १८ : श्लोक ४५ टि० २८
जा रही हैं, पैर लड़खड़ा रहे हैं और दूसरे छोटे-बड़े बैलों का संघट्टन सह रहा है। राजा का मन वैराग्य से भर गया। संसार की परिवर्तनशीलता का भान हुआ। वह प्रतिबुद्ध होकर प्रत्येक-बुद्ध हो गया। वह प्रव्रजित होकर विहरण करने लगा।
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बन गया।
जब ब्राह्मणकुमार ने यह समाचार सुना तो वह एक गांव लेने की आशा से करकण्डु के पास आया और याचना की कि मुझे चम्पा राज्य में एक गांव दिया जाए। करकण्डु ने दधिवाहन के नाम पत्र लिखा। दधिवाहन ने इसे अपना अपमान समझा । उसने करकण्डु को बुरा-भला कहा । करकण्डु ने यह सब सुन कर चम्पा पर चढ़ाई कर दी।
साध्वी रानी पद्मावती ने युद्ध की बात सुनी। मनुष्य-संहार की कल्पना साकार हो उठी। वह चम्पा पहुंची। पिता- पुत्र का परिचय कराया। युद्ध बन्द हो गया। राजा दधिवाहन अपना सारा राज्य करकण्डु को दे प्रव्रजित हो गया।
करकण्डु गो- प्रिय था । एक दिन वह गोकुल देखने गया । उसने एक पतले बछड़े को देखा। उसका मन दया से भर गया। उसने आज्ञा दी कि इस बछड़े को उसकी मां का सारा दूध पिलाया जाए और जब वह बड़ा हो जाए तो दूसरी गायों का दूध भी उसे पिलाया जाए। गोपालों ने यह बात स्वीकार की।
बछड़ा सुखपूर्वक बढ़ने लगा। वह युवा हुआ। उसमें अपार शक्ति थी। राजा ने देखा। वह बहुत प्रसन्न हुआ।
कुछ समय बीता। एक दिन राजा पुनः वहां आया। उसने देखा कि वही बछड़ा आज बूढ़ा हो गया है, उसकी आंखें धंसी
१. सुखबोधा, पत्र १३३-१३५।
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द्विमुख
पंचाल देश में काम्पिल्य नाम का नगर था। वहां जय नाम का राजा राज्य करता था। वह हरिकुलवंश में उत्पन्न हुआ था । उसकी रानी का नाम गुणमाला था ।
एक दिन राजा आस्थान मण्डप में बैठा था । उसने दूत से पूछा - 'संसार में ऐसी कौन-सी वस्तु है जो मेरे पास नहीं है और दूसरे राजाओं के पास है ?" दूत ने कहा- 'राजन् ! तुम्हारे यहां चित्र सभा नहीं है।' राजा ने तत्काल चित्रकारों को बुलाया और चित्र - सभा का निर्माण करने की आज्ञा दी । चित्रकारों ने कार्य प्रारम्भ किया । पृथ्वी की खुदाई होने लगी । पांचवें दिन एक रत्नमय देदीप्यमान् महामुकुट निकला। राजा को सूचना मिली। वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ ।
थोड़े ही काल में चित्र सभा का कार्य सम्पन्न हुआ । शुभ दिन देखकर राजा ने वहां प्रवेश किया और मंगल वाद्य ध्वनियों के बीच उस मुकुट को धारण किया। उस मुकुट के प्रभाव से उसके दो मुंह दीखने लगे। लोगों ने उसका नाम 'द्विमुख' रखा।
काल अतिक्रांत हुआ। राजा के सात पुत्र हुए, पर एक भी पुत्री नहीं हुई । गुणमाला उदासीन रहने लगी। उसने मदन नामक यक्ष की आराधना प्रारम्भ की। यक्ष प्रसन्न हुआ। उसके एक पुत्री हुई। उसका नाम 'मदनमञ्जरी' रखा।
उज्जैन के राजा चण्डप्रद्योत ने मुकुट की बात सुनी। उसने दूत भेजा । दूत ने द्विमुख राजा से कहा- -या तो आप अपना मुकुट चण्डप्रद्योत राजा को समर्पित करें या युद्ध के लिए तैयार हो जाएं ।
द्विमुख राजा ने कहा- 'मैं अपना मुकुट तभी दे हूं जबकि वह मुझे चार वस्तुएं दे-
१. अनलगिरि हाथी २. अग्निभीरु रथ ३. शिवा देवी और ४. लोहजंघ लेखाचार्य ।'
दूत ने जाकर चण्डप्रद्योत से सारी बात कही। वह कुपित हुआ और उसने चतुरंगिणी सेना ले द्विमुख पर चढ़ाई कर दी। वह सीमा पर पहुंचा। उसने सेना का पड़ाव डाला और गरुड़ - व्यूह की रचना की। द्विमुख भी अपनी सेना ले सीमा पर आ डटा । उसने सागर-व्यूह की रचना की।
दोनों ओर भयंकर युद्ध हुआ। मुकुट के प्रभाव से द्विमुख की सेना अजेय रही। प्रद्योत की सेना भागने लगी। वह हार गया । द्विमुख ने उसे बन्दी बना डाला ।
चण्डप्रद्योत कारागृह में बन्दी था। एक दिन उसने राजकन्या
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