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संजयीय
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अध्ययन १८ : श्लोक ५२, ५३
“मैंने यह अत्यन्त युक्तियुक्त३ और सत्य बात कही है। इसके द्वारा कई जीवों ने संसार समुद्र का पार पाया है, पा रहे हैं और भविष्य में पाएंगे।"
५२.अच्चंतनियाणखमा
सच्चा मे भासिया वई। अतरिंसु तरंतेगे
तरिस्संति अणागया ।। ५३.कहं धीरे अहेऊहिं
अत्ताणं परियावसे? सव्वसंगविनिम्मुक्के सिद्धे हवइ नीरए।।
अतयन्तनिदानक्षमा सत्या मया भाषिता वाक् । अतीर्घः तरन्त्येके तरिष्यन्ति अनागताः।। कथं धीरः अहेतुभिः आत्मानं पर्यावासयेत् ?। सर्वसंगविनिर्मुक्तः सिद्धो भवति नीरजाः।।
"धीर पुरुष एकान्त दृष्टिमय अहेतुवादों में अपने आपको कैसे लगाए ? जो सब संगों से मुक्त होता है वह कर्म-रहित होकर सिद्ध हो जाता है।"३५
–त्ति बेमि।।
-इति ब्रवीमि।
—ऐसा मैं कहता हूं।
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