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टिप्पण
अध्ययन
१७ : पाप श्रमणीय
१. बोधि - लाभ (बोहिलाभ)
प्रस्तुत प्रसंग में 'बोध' का अर्थ है– (१) चेतना का जागरण, विशेष प्रकार की समझ और (२) धर्म अथवा तत्त्व | वृत्ति में इसका अर्थ केवली प्रणीत धर्म किया है।'
विशेष विवरण के लिए देखें- सूयगडो 919 19 का टिप्पण । २. विनय... (विणओ...)
विनय का सामान्य अर्थ नम्रता है। प्रस्तुत संदर्भ में यह शब्द ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय अथा उपचारविनय ( शिष्टाचार ) इस चतुर्विध विनय के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।" विनय का एक अर्थ है- आचार । विशेष विवरण के लिए देखें - उत्तरज्झयणाणि के प्रथम अध्ययन का आमुख तथा पहले श्लोक का टिप्पण | ३. स्वच्छंद विहारी (जहासुई)
इसका शाब्दिक अर्थ है—जिन प्रवृत्तियों में स्वयं को सुख की अनुभूति हो वैसी प्रवृत्ति करना अर्थात् स्वच्छन्द विहारी बनना । प्रव्रजित होते समय व्यक्ति सिंहवृत्ति से प्रव्रजित होता है। फिर विकथा आदि में संलग्न होकर वह खिन्नता का अनुभव करता हुआ शृगालवृत्ति वाला हो जाता है, शिथिल हो जाता है-'सीहत्ताए णिक्खतो सीयालत्ताए विहरति । ४. (किं नाम काहामि सुएण भंते !)
गुरु के द्वारा श्रुत की आराधना की प्रेरणा देने पर आलसी शिष्य कहता है- "भंते! श्रुत के अध्ययन से क्या ? बहुश्रुत और अल्पश्रुत में कोई विशेष भेद नहीं होता। आप श्रुत की आराधना करते हैं, पर अतीन्द्रिय वस्तु को जानने में असमर्थ हैं। जो प्रत्यक्ष है उसे ही देख पाते हैं। हम भी वर्तमानग्राही हैं, जो प्रत्यक्ष है उसे जानते हैं। फिर हृदय, कंठ और तालु को सुखाने वाले अध्ययन से क्या प्रयोजन ?"
१. बृहद्वृत्ति पत्र ४३२ बोधिलाभं - जिनप्रणीतधर्मप्राप्तिरूपम् । २. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० २४४ विनयोपपन्नो— ज्ञानदर्शनचारित्र उपचारविनयसम्पन्न इत्यर्थः ।
३. बृहद्वृत्ति, पत्र ४३२ ।
४.
(क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २४४ न च बहुश्रुताल्पश्रुतयोः कश्चिद् विशेषः, ततः किं मम गलतालुविशोषणेण ।
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(ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ४३३: ये भवन्तो भदन्ता अधीयन्ते तेऽपि नातीन्द्रियं वस्तु किञ्चनावबुध्यन्ते, किन्तु साम्प्रतमात्रेक्षिण एव तच्चैतावदस्मास्येवमप्यस्ति तत् किं हृदयगलतालुशोषविधा
यिनाऽधीतेनेति ?
"
५. निंदा करता है (खिंसई)
यह देशी धातु है । इसके दो अर्थ किए गए हैंतिरस्कार करना, निन्दा करना । *
६. आसन (निखेज्ज)
वृत्तिकार ने निषद्या का अर्थ स्वाध्याय भूमि आदि किया है। प्राचीनकाल में स्वाध्याय के लिए एकान्त स्थान का उपयोग किया जाता था, वह मुनियों का समाधिस्थल होता था, उसे निषद्या कहा जाता था। आजकल प्रचलित 'निसीहिआ' शब्द भी उसी का द्योतक है। किन्तु यहां निषद्या का अर्थ आसन ही प्रासंगिक है। संस्तार, फलक, पीठ, पाद कम्बल-इन पदों के साथ निषद्या का प्रयोग आसनवाची ही होना चाहिए। देखें— अध्ययन २ में निषद्या परिषह का टिप्पण । ७. प्रमार्जन किए बिना (तथा देखे बिना) (अप्पमज्जियं)
'प्रमार्जन' और 'प्रतिलेखन' ये दोनों सम्बन्धित कार्य हैं, इसलिए जहां प्रमार्जन का विधान हो वहां प्रतिलेखन का विधान स्वयं समझ लेना चाहिए।
८. ( दवदवस्स चरई)
मिलाएं- दसवे आलियं, ५1१1१४ । ९. प्राणियों को लांघ कर (उल्लंघणे)
वृत्तिकार ने इसका मुख्य अर्थ बालक आदि को लांघकर जाना किया है। वैकल्पिक रूप में उन्होंने बछड़ा, डिम्भ आदि का उल्लंघन करना भी किया है।" दशवैकालिक में मुनि के लिए भेड़, बच्चा, कुत्ता और बछड़ा-इन चारों को लांघकर या हटाकर प्रवेश करने का निषेध है ।" १०. जो गुरु का तिरस्कार करता है (गुरुपरिभावए)
जो गुरु के साथ विवाद करता है अथवा गुरु के द्वारा किसी कार्य के लिए प्रेरित किए जाने पर 'आप ही यह कार्य
५. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि पृ० २४५ ॥
(ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ४३३ ।
बृहद्वृत्ति, पत्र ४३४ : निषद्यां— स्वाध्यायभूम्यादिकां यत्र निषद्यते । जैनेन्द्र कोश, भाग २, पृष्ठ ६२७ ।
बृहद्वृत्ति, पत्र ४३४ 'अप्रमृज्य' रजोहरणादिनाऽसंशोध्य उपलक्षणत्वादप्रत्युपेक्ष्य च ।
६.
वही, पत्र ४३४ उल्लंघनश्च बालादीनामुचितप्रतिपत्त्यकरणतोऽधः कर्ता । १०. वही, पत्र ४३४ उल्लंघनश्च वत्सडिम्भादीनाम् । ११. दसवेआलियं, ५।२२ :
एलगं दारगं साणं, वच्छगं वावि कोट्टए । उल्लंघिया न पविसे, विऊहित्ताण व संजए।।
६.
७.
८.
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