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उत्तरायणाणि
नष्ट हो जाता है। उसके नाश की संभावनाएं इस प्रकार हैं(१) र (२) वसा (३) विचिकित्सा (४) भेद (५) उन्माद (६) दीर्घकालीन रोग और आतंक (७) धर्म - भ्रंश ।
(१) शंका- ब्रह्मचर्य का पालन करने में कोई लाभ है या नहीं ? तीर्थंकरों ने अब्रह्मचर्य का निषेध किया है या नहीं ? अब्रह्मचर्य के सेवन में जो दोष बतलाए गए हैं, वे यथार्थ हैं या नहीं - इस प्रकार अनेक संशय उत्पन्न होते हैं (२) कांक्षा-शंका के की अभिलाषा ।
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(३) विचिकित्सा-चित्त- विप्लव । जब अभिलाषा तीव्र हो जाती है तब मन समूचे धर्म के प्रति विद्रोह करने लग जाता है धर्माचरण के प्रति अनेक सन्देह उठ खड़े होते हैं, इसी अवस्था का नाम विचिकित्सा है।
(४) भेद – जब विचिकित्सा का भाव पुष्ट हो जाता है तब चारित्र का भेद — विनाश होता है।
(५, ६) उन्माद और दीर्घकालीन रोग और (आतंक)कोई मनुष्य ब्रह्मचारी तभी रह सकता है जब वह ब्रह्मचर्य में अब्रह्मचर्य की अपेक्षा अधिक आनन्द माने । यदि कोई हठपूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन करता है किन्तु इन्द्रिय और मन को आत्मवश रखने में आनन्द की अनुभूति नहीं कर पाता तो वह उन्माद या रोग और आतंक से अभिभूत हो जाता है।
(७) धर्म-भ्रंश- इन पूर्व अवस्थाओं से जो नहीं बच पाता वह धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। इसलिए कहा गया है कि ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्य के विघातक निमित्तों से बचे। मूलतः उसके मन में ब्रह्मचर्य के प्रति संदेह ही उत्पन्न नहीं होना चाहिए। उसके होने पर अगली अवस्थाओं से बचना कठिन हो जाता है। ये अवस्थाएं किसी व्यक्ति के एक-दो और किसी के अधिक भी हो जाती हैं।
मिलाइए —— दशवैकालिक, ८ ५१,५२ । ६. केवल स्त्रियों के बीच में कथा न करे (नो इत्लीणं कह) चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है - स्त्री संबंधी कथा न करे । स्त्री कथा के चार प्रकार हैं । -
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'आलोएमाण' के संस्कृत रूप दो किए जा सकते हैंपश्चात् उत्पन्न होने वाली अब्रह्मचर्य आलोकमान और आलोचमान। दोनों क्रियापदों का अर्थ हैदेखता हुआ । 'निज्झायमाण' के भी संस्कृत रूप दो हो सकते हैं—निर्ध्यायन् और निध्यायन् । निर्ध्यायन् का अर्थ है--चिन्तन
करता हुआ और निध्यायन् का अर्थ है—देखता हुआ । आलोकन और निर्ध्यान की प्रक्रिया में अन्तर है। आलोकन का अर्थ है— चारों ओर से देखना अथवा एक बार दृष्टिपात करना । निर्ध्यान का अर्थ है— देखने के पश्चात् उसके विषय में चिन्तन
करना ।
८. मिट्टी की दीवार... पक्की दीवार (कुडू... भित्त)
भींत, नेमिचन्द्र ने पत्थरों से रचित भींत* और चूर्णिकार ने शान्त्याचार्य ने 'कु' का अर्थ खड़िया मिट्टी से बनी हुई पक्की ईंटों से बनी हुई भींत किया है।
शान्त्याचार्य और नेमिचन्द्र ने 'भित्ति' का अर्थ 'पक्की ईंटों से बनी भीत" और वर्णिकार ने 'केतुक' आदि किया है।"
शब्द-कोशों के निर्माण-काल में ये दोनों शब्द पर्यायवाची माने जाते रहे हैं।
लगता है कि 'भित्ति' 'कुड्य' का ही एक प्रकार है। उसके प्रकारों की चर्चा प्राचीन ग्रन्थों में प्राप्त होती है।
कुड्य का अर्थ है—भींत । वह अनेक प्रकार की होती थी ।
१. स्त्रियों की जाति विषयक कथा, जैसे—यह क्षत्रियाणी है, ब्रह्माणी है आदि ।
२. स्त्रियों की कुल विषयक कथा, जैसे—यह उग्रकुल की है, द्रविड कुल की है, मराठाकुल की है।
३. स्त्रियों की रूप विषयक कथा |
४. स्त्रियों की नैपथ्य वेशभूषा विषयक कथा, जैसे
१.
२. बृहद्वृत्ति पत्र ४२४ ।
उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २४२ ।
३. वही, पत्र ४२५ : कुड्यं-खटिकादिरचितम् ।
४. सुखबोधा, पत्र २२१ कुड्यं लेष्टुकादिरचितम् ।
५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २४२ पक्केष्टकादि कुड्यम् ।
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अध्ययन १६ : सूत्र ४-७ टि० ६-८
अमुक देश की स्त्रियों की वेशभूषा सुन्दर है, असुन्दर है आदि ।
वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं—केवल स्त्रियों में कथा न करे तथा स्त्रियों के जाति, कुल, रूप, संस्थान, नैपथ्य आदि की कथा न करे। इन्होंने रूप का अर्थ संस्थान किया है। ७. (आलो एमाणस्य निन्द्रायमाणस्स)
जैसे
(१) लिपी हुई भींत ।
(२) बिना लिपी हुई भींत ।
(३) चेलिम कुड्य — वस्त्र की भींत या पर्दा ।
(४) फलमय कुड्य -- लकड़ी के तख्तों से बनी हुई
भींत ।
(५) फलकपासित कुछ जिसके केवल पार्श्व में तख्ते लगे हों और अन्दर गारे आदि का काम हो । (६) मट्ठ— रगड़ कर चिकनी की हुई दीवार । (७) चित्त-चित्र युक्त भित्ति ।
(८) कडित - चटाई से बनी हुई दीवार ।
(६) तणकुड-फूस से बनी हुई दीवार आदि-आदि।
६. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ४२५ भित्तिः– पक्केष्टकादिरचिता । (ख) सुखबोधा, पत्र २२१ ।
७.
उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २४२ : केतुगादि भित्ती ।
अभिधान चिंतामणि, ४।६६ ।
८.
६. अंगविज्जा, भूमिका, पृ० ५८-५६ ।
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