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टिप्पण
१. ( एगविमाणवासी)
ये सौधर्म देवलोक के पद्मगुल्म नामक एक ही विमान में रहते थे, इसलिए इन्हें 'एक विमानवासी' कहा गया है।" २. अपने... पुण्य कर्म बाकी थे (सकम्मसे सेण)
अध्ययन १४ : इषुकारीय
पुनर्जन्म के अनेक कारणों में यह भी एक प्रमुख कारण है । अपने किए हुए कर्म जब तक शेष रहते हैं तब तक जीव को जन्म लेना ही पड़ता है। इन छहों व्यक्तियों के पुण्य कर्म शेष थे, इसलिए इनका जन्म उत्तम कुल में हुआ। ३. जन्म, जरा और मृत्यु ( जाईजरामच्यु.....)
जन्म, जरा और मृत्यु — ये तीन भय माने जाते हैं। गीता में जन्म, जरा, मृत्यु और दुःख-इन चारों का एक साथ उल्लेख प्राप्त है। ये भय के कारण भी हैं और वैराग्य के हेतु भी बनते हैं। रोग भी वैराग्य का कारण है। महात्मा बुद्ध को वृद्ध, रोगी और मृत व्यक्ति को देखकर वैराग्य हुआ था। ४. संसारचक्र (संसारचक्कस्स)
चूर्णिकार ने संसार-चक्र के छह आरे - विभाग माने हैंजन्म, जरा, सुख, दुःख, जीवन और मरण। इन सबसे आत्यन्तिक छुटकारा पाना ही मोक्ष है। इसका साधन है— विरति । ५. (बहिं विहार, कामगुणे विरत्ता)
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बडिविहार बहिर्विहार अर्थात् मोक्ष मोक्ष संसार के बाहर है-उससे भिन्न है, इसलिए उसे 'बहिर् - विहार' कहा गया है।
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कामगुणे विरत्ता - शब्द आदि इन्द्रियों के विषय कामनाओं को उत्तेजित करते हैं, इसलिए ये 'काम-गुण' कहलाते हैं। दूसरे श्लोक में बताया है कि वे छहों व्यक्ति जिनेन्द्र मार्ग की शरण में चले गए। यहां 'कामगुणे- विरत्ता' की व्याख्या में बताया गया है कि काम - गुणों की विरक्ति का अर्थ ही जिनेन्द्र मार्ग की शरण में जाना है ।
१. बृहद्वृत्ति पत्र ३६६ एकस्मिन् पद्मगुल्मनाम्नि विमाने वसन्तीत्येवंशीला एकविमानवासिनः ।
२. गीता, १४।२० गुणानेतानतीत्य त्रीन् देही समुद्भवान् । जन्ममृत्युजरादुःखै-विमुक्तो ऽमृतमश्नुते ।।
उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २२२ संसारचक्कं छव्विहं तं जहा जाती जरा सुहं दुक्खं जीवितं मरणं ।
४. बृहद्वृत्ति, पत्र ३६७: बहिं संसाराद्विहारः स्थानं बहिर्विहारः, स चार्थान्मोक्षः ।
५. बृहद्वृत्ति, पत्र ३६७ अत्र कामगुणविरक्तिरेव जिनेन्द्रमार्गप्रतिपत्तिः ।
३.
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६. मनुष्य जीवन (बिहार)
विहार शब्द के अनेक अर्थ हैं--मनोरंजन, घूमना, हाथ-पैर आदि का संचालन आदि। यहां विहार का अर्थ हैजीवन की समग्रता या संपूर्ण जीवन यापन ।
चूर्णि में इसका अर्थ भोग और वृत्ति में मनुष्यभव में अवस्थिति किया है।
७.
मुनि चर्चा (मोण)
इसका अर्थ है-मुनि-चर्या, संयम मीन शब्द की व्युत्पत्ति है-मुनेर्भावः मीनम्। मुनि का भाव अर्थात् ज्ञान या ज्ञानयुक्त
आचरण ।
८.
(मुणीण)
टीकाकारों के अनुसार यह कुमारों का विशेषण है। यहां भावी मुनि को 'मुनि' कहा गया है।' किन्तु जिन मुनियों को देख कर कुमारों को प्रवजित होने की प्रेरणा मिली, उनके तपोमार्ग का व्याघात करना पुरोहित के लिए इष्ट था, इसलिए मुनि शब्द के द्वारा उन मुनियों का भी ग्रहण किया जा सकता है ।
९. अरण्यवासी (आरण्णगा)
ऐतरेय, कौशीतकी और तैतरीय —ये शास्त्र 'आरण्यक' कहलाते हैं। इनमें वर्णित विषयों के अध्ययन के लिए अरण्य का एकान्तवास आवश्यक था, इसलिए इन्हें आरण्यक कहा गया। अरण्य में रहकर साधना करने वाले मुनि भी आरण्यक कहलाते थे ।
१०. ( श्लोक ८-९ )
ब्राह्मण और स्मृतिशास्त्र का अभिमत रहा है कि जो द्विज वेदों को पढ़े बिना, पुत्रों को उत्पन्न किए बिना और यज्ञ किए बिना मोक्ष की इच्छा करता है, वह नरक में जाता है, इसलिए वह विधिवत् वेदों को पढ़ कर, पुत्रों को उत्पन्न कर
६. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २२३ : विहरणं-विहारः, भोगाः इत्यर्थः । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३६८ विहरणं विहार, मनुष्यत्वे नावस्थानमित्यर्थः । 'मुन्यो:' भावतः प्रतिपन्नमुनिभावयोः । नापुत्रस्य लोको ऽस्ति ।
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८.
६.
वृहद्वृत्ति, पत्र ३६८ ऐतरेय ब्राह्मण, ७३
मनुस्मृति, ६ । ३६, ३७ :
अधीत्य विधिवद्वेदान्पुत्रांश्चोत्पाद्य धर्मतः ।
इष्ट्वा च शक्तितो यज्ञैर्मनो मोक्षे निवेशयेत् ।।
अनधीत्य द्विजो वेदाननुत्पाद्य तथा सुतान् ।
अनिष्ट्वा चैव यज्ञैश्च मोक्षमिच्छन्द्रजत्यधः ।।
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