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टिप्पण
अध्ययन १५ : सभिक्षुक
१. मुनि-व्रत का (मोणं)
शब्द प्रयुक्त है। वहां चूर्णिकार ने इसका अर्थ---ज्ञान आदि से जो त्रिकालावस्थित जगत् को जानता है, उसे मुनि कहा सहित किया है और शान्त्याचार्य ने इसके दो अर्थ किए हैंजाता है। मुनि के भाव या कर्म को मौन कहा जाता है। मौन (१) सम्यग् ज्ञान और क्रिया से युक्त। का बहु-प्रचलित अर्थ है-वचन-गुप्ति। किन्तु यहां इसका (२) भविष्य के लिए कल्याणकारी अनुष्ठान से युक्त।' अर्थ-समग्र मुनि-धर्म है।'
पन्द्रहवें श्लोक में भी इसका प्रयोग हुआ है। २. जो सहिष्णु है (सहिए)
किन्तु इन व्याख्याओं में ज्ञान आदि का अध्याहार करने यहां 'सहिए' शब्द का अर्थ है सहिष्णु। 'षह्' धातु मर्षण
न पर ही ‘सहित' का अर्थ पूर्ण होता है। सहिष्णु-इस अर्थ में
प अर्थात् क्षमा के अर्थ में है। इस धातु का प्राकृत में क्त प्रत्ययांत किस
न किसी दूसरे पद के अध्याहार की अपेक्षा नहीं होती। रूप 'सहिय' बनता है। संस्कृत में 'इट' होने पर 'सहित' और ३. जिसका अनुष्ठान ऋजु है (उज्जुकड) 'इट' न होने पर 'सोढ' बनता है। सेतुबन्ध (१५५) में इसका अर्थ है--संयम प्रधान या मायारहित अनुष्ठान। 'सहिय' शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में हुआ है।
चूर्णि के अनुसार जो व्यक्ति ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप से चूर्णिकार ने इसका अर्थ-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप अपने भावों को ऋजु-सरल बना लेता है, वह ऋजुकृत से युक्त किया है। बृहद्वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं- कहलाता है। वृत्तिकार ने ऋजु का अर्थ संयम तथा मायारहित सम्यग-दर्शन आदि से युक्त अथवा दूसरे साधुओं के साथ। किया है।' उन्होंने इसका दूसरा संस्कृत रूप 'स्वहित' देकर उसका अर्थ- देखें--१४।४ का टिप्पण। अपने लिए हितकर किया है।
४. जो वासना के संकल्प का छेदन करता है आचार्य नेमिचन्द्र ने 'सहिए' का अर्थ--अन्य साधुओं से (नियाणछिन्ने) समेत किया है। वे यहां एकल-विहार का प्रतिषेध बतलाते हैं। निदान का अर्थ है—किसी व्रतानुष्ठान की फल-प्राप्ति के साधुओं को एकाकी विहार नहीं करना चाहिए-इस तथ्य की लिए मोहाविष्ट-संकल्प, जैसे-'मेरे साधुपन का यदि फल हो पुष्टि में वे एक गाथा प्रस्तुत करते हैं
तो मैं देव बनूं, धनी बनूं आदि-आदि।' साधक के लिए ऐसा 'एगागियस्स दोसा, इत्थी साणे तहेव पडिणीए। भिक्खविसोहि महव्वय, तम्हा सेविज्ज दोगमणं। शान्त्याचार्य ने निदान के दो अर्थ किए हैं-विषयों अर्थात् एकाकी रहने से
की आसक्ति तथा प्राणातिपात आदि कर्म-बन्धन का कारण। १. स्त्री-प्रसंग की संभावना रहती है।
उन्होंने संयुक्त पद 'नियाणछिन्न' का अर्थ 'अप्रमत्त-संयत' २. कुत्ते आदि का भय रहता है।
किया है। ३. शत्रु का भय रहता है।
५. परिचय का (संथव) ४. भिक्षा की विशुद्धि नहीं रहती।
इसके दो अर्थ हैं-स्तुति और परिचय। चूर्णिकार और ५. महाव्रतों के पालने में जागरूकता नहीं रहती। टीकाकारों को यहां 'परिचय' अर्थ ही अभीष्ट है। अतः एकाकी न रह कर साथ में रहना चाहिए।'
चूर्णिकार के अनुसार संस्तव दो प्रकार का है--- इसी अध्ययन के पांचवें श्लोक के चौथे चरण में 'सहित' संवास-संस्तव और वचन-संस्तव। असाथ व्यक्तियों के साथ १. (क) उत्तराध्यवन चूर्णि, पृ० २३४ : मन्यते त्रिकालावस्थितं जगदीति ५. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २३६ : ज्ञानादिसहितः। मुनिः, मुनिभावो मौनम्।
(ख) बृहवृत्ति, पत्र ४१६ : सहितः सम्यग्ज्ञानक्रियाभ्यां, यद् वा सह (ख) वृहद्वृत्ति, पत्र ४१४ : मुनेः कर्म मौनं तच्च सम्यक्चारित्रम्।
हितेन-आयतिपथ्येन अर्थादनुष्ठानेन वर्त्तत इति सहितः। (ग) सुखबोधा, पत्र २१४ : मौनं श्रामण्यम् ।
६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ०२३४। २. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २३४ : ज्ञानदर्शनचारित्रतपोभिः ।
७. बृहद्वृत्ति, पत्र ४१४ । २. बृहद्वृत्ति, पत्र ४१४ : सहितः-सम्यग्दर्शनादिभिरन्यसाधुभिर्वेति गम्यते। ८. वही, पत्र ४१४ : निदानं—विषयाभिष्वंगात्मकं, यदि वा.....निदानं--- ......स्वरमै हितः स्वहितो वा सदनुष्ठानकरणतः।
प्राणातिपातादिकर्मबन्धकारणम् । ४. सुखबोधा, पत्र २१४ ।
६. वही, पत्र ४१४ : छिन्ननिदानो वा अप्रमत्तसंयत इत्यर्थः ।
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