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उत्तरज्झयणाणि
६. जेण पुण जहाइ जीवियं मोहं वा कसिणं नियच्छई । नरनारिं पजहे सया तवस्सी न य कोऊहलं उवेइ स भिक्खू ।।
७. छिन्नं सरं भोमं अंतलिक्खं सुमिणं लक्खणदंडवत्थुविज्जं । अंगवियारं सरस्स विजयं जो विज्जाहिं न जीवइ स भिक्खू ।।
८. मंतं मूलं विविहं वेज्जचिंतं वमणविरेयणधूमणेत्तसिणाणं । आउरे सरणं तिगिच्छियं च तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खू ।।
६. खतियगणउग्गरायपुत्ता
माहणभोइय विविठा व सिप्पिणी। नो तेसिं वयइ सिलोगपूयं तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खू ।।
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येन पुनर्जहाति जीवितं मोहं वा कृत्स्नं नियच्छति । नरनारीं प्रजह्यात् सदा तपस्वी न च कौतूहलमुपैति स भिक्षुः ।।
छिन्नं स्वरं भौममन्तरिक्षं स्वप्नं लक्षणदण्डवास्तुविद्यां । अंगविकारः स्वरस्य विचयः यो विद्याभिर्न जीवति स भिक्षुः ।।
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मन्त्रं मूलं विविधां वैद्यचिन्तां वमन विरेचन- धूमनेत्र - स्नानम् । आतुरे शरणं चिकित्सितं च
मन्त्र, मूल, विविध प्रकार की आयुर्वेद सम्बन्धी चिन्ता, वमन, विरेचन, धूम्र-पान की नली, स्नान, आतुर होने पर स्वजन की शरण,
तत् परिज्ञाय परिव्रजेत् स भिक्षुः ।। चिकित्सा - इनका परित्याग कर जो परिव्रजन करता है-वह भिक्षु है ।
१०. गिहिणो जे पव्वइएण दिट्ठा अप्पव्वइएण व संयुमा हविज्जा तेसिं इहलोइयफलद्वा
जो संघवं न करेइ स भिक्खू ।। ११. सयणासणपाणभोयणं
शयनासनपानभोजनं विवहं खाइमसाइमं परेसिं । विविधं खाद्यस्वाद्यं परेभ्यः । अदए पडिसेहिए नियंठे अददद्भ्यः प्रतिषिद्धो निर्ग्रन्थः जे तत्थ न पउस्सई स भिक्खू ।। यस्तत्र न प्रदुष्यति स भिक्षुः ।। १२. जं किंचि आहारपाणं विविहं यत्किंचिदाहरपानं विविधं खाइमसाइमं परेसिं लधुं । खाद्यस्वाद्यं परेभ्यो लब्ध्वा । जो तं तिविहेण नाणुकंपे यस्तेन विविधेन नानुकम्पते मणवयकायसुसंवुडे स भिक्खू ।। सुसंवृतमनोवाक्कायः स भिक्षुः ।।
अध्ययन १५ : श्लोक ६-१३
जिसके संयोग मात्र से संयम जीवन छूट जाये और समग्र मोह से बंध जाए वैसे स्त्री या पुरुष की संगति का जो त्याग करता है, जो सदा तपस्वी है, जो कुतूहल नहीं करता- वह भिक्षु है ।
क्षत्रियगणोग्रराजपुत्राः क्षत्रिय, गण, उग्र, राजपुत्र, ब्राह्मण, भोगिक ब्राह्मणभोगका विविधाश्च शिल्पिनः । (सामन्त ) और विविध प्रकार के शिल्पी जो होते नो तेषां वदति श्लोकपूजे हैं, उनकी श्लाघा और पूजा नहीं करता किन्तु तत्परिज्ञाय परिव्रजेत् स भिक्षुः ।। उसे दोष-पूर्ण जान उसका परित्याग कर जो परिव्रजन करता है - वह भिक्षु है।
१३. आयामगं चेव जवोदणं च आयामकं चैव यवौदनं च सीयं च सोवीरजवोदगं च । शीतं सौवीरं यवोदकं च । नो हीलए पिंडं नीरसं तु न हीलयेत् पिण्ड नीरस तु पंतकुलाई परिव्वए स भिक्खू ।। प्रान्त्यकुलानि परिव्रजेत् स भिक्षुः ।। प्रान्त्यकुलानि परिव्रजेत् स भिक्षुः ।।
जो छिन्न ( छिद्र - विद्या), स्वर (सप्त-स्वर विद्या), भौम, अन्तरिक्ष, स्वप्न, लक्षण, दण्ड, वास्तु-विद्या, अंग-विकार और स्वर- विज्ञान ( पशु-पक्षी स्वर - विद्या) — इन विद्याओं के द्वारा आजीविका नहीं करतावह भिक्षु है ।"
गृहिणो ये प्रव्रजितेन दृष्टाः
दीक्षा लेने के पश्चात् जिन्हें देखा हो या उससे अप्रव्रजितेन च संस्तुता भवेयुः । पहले जो परिचित हों उनके साथ इहलौकिक तेषामिहलौकिकफलार्थ फल (वस्त्र पात्र आदि) की प्राप्ति के लिए जो यः संस्तवं न करोति स भिक्षुः । परिचय नहीं करता — वह भिक्षु है ।
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शयन, आसन, पान, भोजन और विविध प्रकार के खाद्य-स्वाद्य गृहस्थ न दे तथा कारणविशेष से मांगने पर भी इन्कार हो जाए, उस स्थिति में जो प्रद्वेष न करे वह भिक्षु है ।
गृहस्थों के घर से जो कुछ आहार, पानक और विविध प्रकार के खाद्य-स्वाद्य प्राप्त कर जो गृहस्थ की मन, वचन और काया से अनुकम्पा नहीं करता - उन्हें आशीर्वाद नहीं देता, जो मन, वचन और काया से सुसंवृत होता हैवह भिक्षु है ।
ओसामन, जौ का दलिया, ठण्डा-वासी आहार, कांजी का पानी ", जौ का पानी जैसी नीरस भिक्षा की जो निन्दा नहीं करता, जो सामान्य घरो में भिक्षा के लिए जाता है—वह भिक्षु है।
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