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सभिक्षुक
१४. सद्दा विविहा भवंति लोए दिव्वा माणुस्सगा तहा तिरिच्छा । भीमा भयभेरवा उराला जो सोच्चा न वहिज्जई स भिक्खू ।। १५. वादं विविहं समिच्च लोए
सहिए खेयाणुगए य कोवियप्पा । पन्ने अभिभूय सव्वदंसी उवसंते अविहेडए स भिक्खू ।। उपशान्तो ऽविहेठकः स भिक्षुः ।।
१६. असिप्पजीवी अगिहे अमित्ते जिइंदिए सव्वओ विप्पमुक्के । अणुक्कसाई लहुअप्पभक्खी चेच्चा गिहं एगचरे स भिक्खू ।।
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—त्ति बेमि ।
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शब्दा विविधा भवन्ति लोके दिव्या मानुष्यकास्तथा तैरश्चाः । भीमा भयभैरवा उदाराः यः श्रुत्वा न व्यथते स भिक्षुः ।।
वादं विविधं समेत्य लोके
जो लोक में विविध प्रकार के वादों को जानता सहितः खेदानुगतश्च कोविदात्मा । है, जो सहिष्णु है, जो संयमी है, जिसे आगम प्रज्ञो ऽभिभूय सर्वदर्शी का परम अर्थ प्राप्त हुआ है, जो प्रज्ञ है, जो परीषहों को जीतने वाला और सब जीवों को आत्म-तुल्य समझने वाला है, जो उपशान्त और किसी को भी अपमानित न करने वाला २६ होता है वह भिक्षु है ।
अशिल्पजीव्यगृहो ऽमित्रः जितेन्द्रियः सर्वतो विप्रयुक्तः अनुभवाची लध्वल्पभक्षी त्यक्त्वा गृहमेकचरः स भिक्षुः ।।
- इति ब्रवीमि ।
अध्ययन १५ : श्लोक १४-१६
लोक में देवता, मनुष्य और तिर्यञ्चों के अनेक प्रकार के रौद्र, अति भयंकर और ऊंचे स्वर में३ शब्द होते हैं, उन्हें सुनकर जो व्यथित नहीं होता - वह भिक्षु है ।
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जो शिल्प-जीवी नहीं होता, जिसके घर नहीं होता, जिसके मित्र नहीं होते, जो जितेन्द्रिय और सब प्रकार के परिग्रह से मुक्त होता है, जिसका कषाय मन्द होता है, जो हलका और थोड़ा भोजन करता है, जो घर को छोड़ अकेला ( राग-द्वेष से रहित हो) विचरता है—वह भिक्षु है ।
---ऐसा मैं कहता हूँ ।
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