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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन १५ : श्लोक ३-७ टि० १२-१६
है---ज्ञान और दर्शन के आवरण को हटाकर। जो इन आवरणों वस्त्र, शस्त्र, काठ, आसन, शयन आदि में चूहे, शस्त्र, से मुक्त होता है, वही सर्वदर्शी हो सकता है। यह प्रत्यक्ष ज्ञान कांटे आदि से हुए छेद के द्वारा शुभाशुभ का ज्ञान करना छिन्न की उपलब्धि का सोपान है।
निमित्त है। १२. जो आत्मा का संवरण किए रहता है (आयगुत्ते) स्वरों को सुन कर शुभाशुभ का ज्ञान कर लेना स्वर-निमित्त है।
शान्त्याचार्य ने इसका मुख्य अर्थ 'शारीरिक अवयवों को स्वर के तीन अर्थ किए जा सकते हैं—(१) सप्तस्वर-विद्या, नियंत्रित रखने वाला' किया है और गौण रूप में 'आत्म-रक्षक' (२) स्वरोदय के आधार पर शुभ-अशुभ फल का निर्देश करना किया है। उन्होंने एक प्राचीन श्लोक को उद्धत करते हए आत्मा और (३) अक्षरात्मक शब्द अथवा पश-पक्षियों के अनक्षरात्मक का अर्थ 'शरीर' किया है।' नेमिचन्द्र ने 'आत्म-रक्षक' अर्थ शब्दों के आधार पर शुभ-अशुभ का निर्देश करना। तत्त्वार्थ-वार्तिक मान्य किया है।
में स्वर का यह अर्थ उपलब्ध है। १३. जिसका मन आकुलता...से रहित होता है (अवम्गमणे) भूकम्प आदि के द्वारा अथवा अकाल में होने वाले
मन की दो अवस्थाएं हैं-व्यग्र और एकाग्र। व्यग्र का पुष्प-फल, स्थिर वस्तुओं के चलन एवं प्रतिमाओं के बोलने से अर्थ है-चंचल। अव्यग्र शब्द एकाग्र के अर्थ में प्रयुक्त है। भूमि का स्निग्ध-रुक्ष आदि अवस्थाओं के द्वारा शुभाशुभ का
ज्ञान करना अथवा भूमिगत धन आदि द्रव्यों का ज्ञान करना १४. तुच्छ (पंत)
भौम-निमित्त है। यह देशी शब्द है। प्रस्तुत प्रसंग में यह 'सयणासणं' का
आकाश में होने वाले गन्धर्व-नगर, दिग्दाह, धूली की वृष्टि विशेषण है। इसका अर्थ है-तुच्छ, सामान्य। बंगला भाषा में
आदि के द्वारा अथवा ग्रहों के युद्ध तथा उदय-अस्त के द्वारा इसका अर्थ है बासी चावल।
शुभाशुभ का ज्ञान करना अंतरिक्ष-निमित्त है। १५. आत्म-गवेषक है (आयगवेसए)
स्वप्न के द्वारा शुभाशुभ का ज्ञान करना स्वप्न-निमित्त है। __ शान्त्याचार्य ने 'आय' शब्द के तीन संस्कृत रूपों की
शरीर के लक्षणों के द्वारा शुभाशुभ का ज्ञान करना कल्पना कर इस शब्द समूह के तीन अर्थ किए हैं
लक्षण-निमित्त है। १. आत्म-गवेषक-आत्मा के शुद्ध स्वरूप की गवेषणा
शिर:-स्फुरण आदि के द्वारा शुभाशुभ का ज्ञान करना करने वाला।
अंगविकार-निमित्त है। २. आय-गवेषक सम्यग् दर्शन आदि की आय (लाभ)
यष्टि के विभिन्न रूपों के द्वारा शुभाशुभ का ज्ञान करना की गवेषणा करने वाला।
यष्टि-विद्या है। ३. आयात-गवेषक मोक्ष की गवेषणा करने वाला।
प्रासाद आदि आवासों के शुभाशुभ लक्षणों का ज्ञान करना १६. (श्लोक ७)
वास्तु-विद्या है। इस श्लोक में दस विद्याओं का उल्लेख किया गया है। षड्ज, ऋषभ आदि सात स्वरों के शुभाशुभ निरूपण का उनमें दण्ड-विद्या, वास्तु-विद्या और स्वर को छोड़ शेष सात अभ्यास करना स्वर-विचय है। विद्याएं निमित्त के अंग हैं। अंग, स्वर, लक्षण, व्यंजन, स्वप्न, चर्णि में जो व्याख्या 'स्वर' की है, वह बृहवृत्ति में छिन्न, भीम और अन्तरिक्ष—ये अष्टांग निमित्त हैं। प्रस्तुत 'स्वर-विचय' की और जो 'स्वर-विचय' की है, वह 'स्वर' की श्लोक में व्यंजन का उल्लेख नहीं है।
है। निमित्त या विद्या के द्वारा भिक्षा प्राप्त करना 'उत्पादना' १. वृहद्वृत्ति, पत्र ४१५ : आत्मा' शरीरम्, आत्मशब्दस्य शरीरवचनस्यापि ६. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २३६ : पुरूषः दुदुभिस्वरो काकस्वरी वा दर्शनात, उक्तं हि थर्मधृत्यग्निधीन्द्वकत्वक्तत्त्वस्वार्थदेहिपु।
एवमादिस्वरव्याकरणम्। शीलानिलमनोयत्नैकवीर्येष्वात्मनः स्मृतिः।। (ख) वही, पृ०२३६ : ऋषभगान्धारादीनां स्वराणां विजयः अभ्यासः । इति, तेन गुप्त आत्मगुप्तो-न यतस्ततः करणचरणादिविक्षेपकृत, यद्वा (ग) बृहवृत्ति, पत्र ४१६ : ‘सरं' ति स्वरस्वरूपाभिधानं, गुप्तो-रक्षितोऽसंयमस्थानेभ्य आत्मा येन स तथा।
“सज्ज रवइ मयूरो, कुक्कुडो रिसभं सरं। २. सुखबोधा, पत्र २१५ : 'आयगुत्ते' त्ति गुप्तः-रक्षितोऽसंयमस्थानेभ्य
हंसो रवति गंधार, मज्झिमं तु गवेलए।।" आत्मा येन स।
इत्यादि, तथा३. बृहद्वृत्ति, पत्र ४१६ ।
“सज्जेण लहइ वित्तिं, कयं च न विणस्सई। ४. (क) अंगविज्जा , १२ :
गावो पुत्ता य मित्ता य, नारीण होइ वल्लहो।। अंग सरो लक्खणं च वंजणं सुविणो तहा।
रिसहेण उ ईसरियं, सेणावच्चं धणाणि य।" छिण्ण भोम्मऽतलिक्खाए, एमए अह आहिया।।
(घ) वही, पत्र ४१७ : स्वर:-पोदकीशिवादिरुतरूपरतस्य विषयः(ख) मूलाचार, पिण्डशुद्धि अधिकार, ३०॥
तत्सम्बन्धी शुभाशुभनिरूपणाभ्यासः, यथा(ग) तत्त्वार्थ राजवार्तिक, ३३६।।
गतिस्तारा स्वरो वामः, पोदक्याः शुभदः स्मृतः । ५. तत्त्वार्थवार्तिक ३३६ : अक्षरानक्षरशुभाशुभशब्दश्रवण नेष्टानिष्टफला
विपरीतः प्रवेशे तु, स एवाभीष्टदायकः ।। विर्भावनं महानिमित्तं स्वरम् ।
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