________________
हरिकेशीय
२१९
अध्ययन १२ :श्लोक २८-३७ टि०३३-४०
है कि किसी-किसी मनुष्य की इच्छा (टपकार) से मकान फट का प्रतिपाद्य अथवा अभिधेय वस्तु, सत्य, धन आदि। वृत्ति में दो जाता है।
अर्थ उपलब्ध हैं-वस्तु और अभिधेय। ३३. उग्र तपस्वी है (उग्गतवो)
अर्थ ज्ञेय होता है, इसलिए उसका एक अर्थ-सब वस्तुएं जो एक, दो, तीन, चार, पांच पक्ष अथवा मास आदि हो सकता है। किन्तु यहां प्रकरण से शुभ-अशुभ कर्मों या उपवास-योग में से किसी एक उपवास-योग का आरम्भ कर राग-द्वेष के फल को 'अर्थ' कहा गया है। अथवा शास्त्रों का जीवन पर्यन्त उसका निर्वाह करता है, उसे 'उग्र तपस्वी' कहा । प्रतिपाद्य-इस अर्थ में भी वह प्रयुक्त हो सकता है। यहां अर्थ जाता है।
शब्द 'सत्य' के अर्थ में प्रयुक्त है। ३४. (लोग पि एसो........)
३८. भूतिप्रज्ञ (भूइपन्ना) मुनि कुपित होने पर समूचे विश्व को भस्म कर सकता भूति के तीन अर्थ किए गए हैं—मंगल, वृत्ति और रक्षा। है। वाचक का मन्तव्य है-'कल्पान्तोग्रानलवत् प्रज्वलनं प्रज्ञा का अर्थ है वह बुद्धि जिससे पहले ही जान लिया जाता है। तेजसैकतस्तेषाम्'-जैसे प्रलयकाल की उग्र अग्नि प्रज्वलित जिसकी बुद्धि सर्वोत्तम मंगल, सर्वश्रेष्ठ वृद्धि या सर्वभूत-हिताय होती है, वैसे ही ये तपस्वी मुनि अपनी तैजस शक्ति से युक्त प्रवृत्त हो, वह 'भूतिप्रज्ञ' कहलाता है।" होते हैं।
३९. प्रचुर भोजन (पभूयमन्न) 'न तद् दूरं यदश्वेषु, यच्चाग्नी यच्च मारुते। यहां प्रचुर अन्न के द्वारा यज्ञ में बने पूड़े, खाजे आदि विषे च रुधिरप्राप्ते, साधां च कृतनिश्चये। सारे खाद्य पदार्थों को लेने का मुनि से अनुरोध किया गया है।
-अश्व, अग्नि और पवन के लिए कुछ भी दूर नहीं चावल के बने भोजन को सबसे मुख्य माना जाता था। इसलिए होता। जो विष रक्तगत हो जाता है, उसके लिए मारना सरल हो पिछले श्लोक में उसके लिए पृथक् रूप से अनुरोध किया है। जाता है। वैसे ही संकल्पवान् मुनि के लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं ४०. जाति की कोई महिमा नहीं है (ल दीसई जाइविसेस कोई) होता।
. जैन दर्शन के अनुसार जातिवाद अतात्त्विक है। भगवान् ३५. निष्क्रिय (अकम्मचेठे)
महावीर ने कहा—एक जीव अनेक बार उच्च गोत्र में उत्पन्न बृहद्वृत्ति में इसके दो अर्थ प्राप्त होते हैं
हुआ और अनेक बार नीच गोत्र में जन्मा, इसलिए न कोई (१) जिनके कार्य की हेतुभूत चेष्टाएं रुक गई हों। छोटा है और न कोई बड़ा। मनुष्य अपने कर्मों से ब्राह्मण
(२) जिनकी यज्ञ की अग्नि में ईंधन आदि डालने की होता है, कर्मों से क्षत्रिय, कर्मों से वैश्य और कर्मों से शूद्र। प्रवृत्ति बन्द हो गई हो।
मनुष्य की सुरक्षा उसके ज्ञान और आचार से होती है, जाति ३६. (निम्मे रिय......)
और कुल से नहीं।" भगवान् महावीर ने यह कभी स्वीकार निब्भेरिय—यह देशी शब्द है। चूर्णिकार ने इसका अर्थ नहीं किया कि ब्राह्मण जाति में उत्पन्न व्यक्ति चाहे कैसी भी निर्गत-बाहर निकला हुआ और वृत्तिकार ने प्रसारित किया दुष्प्रवृत्ति करे, श्रेष्ठ है और शूद्र जाति में उत्पन्न व्यक्ति चाहे
कितना भी तपश्चरण करे, नीच है। वस्तुतः व्यक्ति की उच्चता ३७. अर्थ (अत्यं)
और नीचता की कसौटी तप, संयम और पवित्रता है, जाति 'अर्थ' शब्द के अनेक अर्थ हैं—प्रयोजन, अध्यात्मशास्त्र नहीं। जो जितना आचारवान् है वह उतना ही उच्च है और १. तत्त्वार्थ राजवार्तिक, पृ० २०३ : तपोऽतिशयर्द्धिः सप्तविधा-उग्र- ७. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २१० : भूतिं मंगलं वृद्धिः रक्षा, प्रागर दीप्त-तप्त-महा-घोर-तपो-वीरपराक्रम-घोरब्रह्मचर्यभेदात्ः चतुर्थ
(गेव) ज्ञायते अनयेति प्रज्ञा, तत्र मंगले सर्वमंगलोत्तमाऽस्य प्रज्ञा, षष्ठाष्टमदशमद्वादशपक्षमासाद्यनशनयोगेष्वन्यतमयोगमारभ्य आमरणाद
अनन्तज्ञानवानित्यर्थः, रक्षायां तु रक्षाभूताऽस्य प्रज्ञा सर्वलोकस्य निवर्तका उग्रतपसः।
सर्वसत्त्वानां वा। २. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०६।
(ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३६८ : भूतिर्मगलं वृद्धि रक्षा चेति वृद्धाः, (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३६७।
प्रज्ञायतेऽनया वस्तुतत्त्वमिति प्रज्ञा, ततश्चः भूति:--मंगलं बृहद्वृत्ति, पत्र ३६७ : अकर्मचेष्टाश्च-अविद्यमानकर्माहतुव्यापारतया
सर्वमंगलोत्तमत्वेन वृद्विर्वा वृद्रि विशिष्टत्वेन रक्षा वा प्राणिरक्षकत्वेन प्रसारितबाहवकर्मचेष्टास्तान, यद्वा क्रियन्त इति कर्माणि-अग्नी
प्रज्ञा–बुद्धिरस्येति भूतिप्रज्ञः। समित्प्रक्षेपणादीनि तद्विषया चेष्टा कर्मचेष्टेह गृह्यते।
८. बृहवृत्ति, पत्र ३६६ : 'प्रभूतं' प्रचुरमन्नं-मण्डकखण्डखाद्यादि समस्तमपि ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०६ : णिभरित-निर्गतमित्यर्थः।
भोजन, यत्प्राक् पृथगोदनग्रहणं तत्तस्य सर्वान्नप्रधानत्वख्यापनार्थम् । ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ३६७ : निब्भेरिय त्ति प्रसारित........।
६. आयारो २४६ : से असई उच्चागोए। असई णीआगोए : णो हीणे, णो ६. वही, पत्र ३६८ : अर्यत इत्यों -ज्ञेयत्त्वात्सव्यमेव वस्तु, इह तु अइरित्ते.....।
प्रक्रमाच्छुभाशुभकर्मविभागो रागद्वेषविपाको वा परिगृह्यते, यद्वा अर्थः-- १०. उत्तराध्ययन, २५॥३१॥ अभिधेयः स चार्थाच्छास्त्राणामेव तम्।
११. सूत्रकृतांग, ११३ ११ : न तस्य जाई व कुलं व ताणं, नन्नत्थ
विज्जाचरणं सुचिण्णं।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org