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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन १४ : श्लोक १७-२५ १७.धणेण किं थम्मधुराहिगारे धनेन किं धर्मधुराधिकारे पुत्र बोले-“पिता ! जहां धर्म की धुरा को वहन करने
सयणेण वा कामगुणेहि चेव। स्वजनेन वा कामगुणैश्चैव। का अधिकार है वहां धन, स्वजन और इन्द्रिय-विषय समणा भविस्सामु गुणोहधारी श्रमणी भविष्यावो गुणीधधारिणी का क्या प्रयोजन है? कुछ भी नहीं। हम गुण-समूह बहिंविहारा अभिगम्म भिक्खं ।। बहिर्विहारावभिगम्य भिक्षाम् ।। से सम्पन्न श्रमण होंगे, प्रतिबन्ध-मुक्त होकर गांवों
और नगरों में विहार करने वाले और भिक्षा लेकर
जीवन चलाने वाले।"१७ १८.जहा य अग्गी अरणीउसंतो यथा चाग्निररणितोऽसन् “पुत्रो ! जिस प्रकार अरणी में अविद्यमान अग्नि
खीरे घयं तेल्ल महातिलेसु। क्षीरे घृतं तैलं महातिलेषु। उत्पन्न होती है, दूध में घी और तिल में तेल पैदा एमेव जाया ! सरीरंसि सत्ता एवमेव जातौ ! शरीरे सत्त्वाः होता है, उसी प्रकार शरीर में जीव उत्पन्न होते हैं संमुच्छई नासइ नावचिठे।। संमूर्च्छन्ति नश्यन्ति नावतिष्ठन्ते।। और नष्ट हो जाते हैं। शरीर का नाश हो जाने पर
उनका अस्तित्व नहीं रहता।"-पिता ने कहा।" १६.नो इंदियग्गेज्झ अमुत्तभावा नो इन्द्रियग्राह्योऽमूर्तभावात् । कुमार बोले—“पिता ! आत्मा अमूर्त है इसलिए यह
अमुत्तभावा वि य होइ निच्चो। अमूर्तभावादपि च भवति नित्यः। इन्द्रियों के द्वारा नहीं जाना जा सकता। यह अमूर्त है अज्झत्थहेउं निययस्स बंधो अध्यात्महेतुर्नियतोऽस्य बन्धः इसलिए नित्य है। यह निश्चय है कि आत्मा के संसारहेउं च वयंति बंधं ।। संसारहेतुं च वदन्ति बन्धम् ।। आन्तरिक दोष ही उसके बन्धन के हेतु हैं और
बन्धन ही संसार का हेतु है।"--ऐसा कहा है। २०.जहा वयं धम्ममजाणमाणा यथाऽऽवां धर्ममजानानौ "हम धर्म को नहीं जानते थे तब घर में रहे, हमारा
पावं पुरा कम्ममकासि मोहा। पापं पुरा कर्माकार्ब मोहात्। पालन होता रहा और मोह-वश हमने पाप-कर्म का
ओरुज्झमाणा परिरक्खियंता अवरुध्यमानौ परिरक्ष्यमाणौ आचरण किया। किन्तु अब फिर पाप-कर्म का आचरण
तं नेव भुज्जो वि समायरामो।। तन्नैव भूयोऽपि समाचरावः।। नहीं करेंगे।" २१. अब्माहयंमि लोगंमि
अभ्याहते लोके
“यह लोक पीड़ित हो रहा है, चारों ओर से घिरा सव्वओ परिवारिए। सर्वतः परिवारिते।
हुआ है, अमोघा आ रही है। इस स्थिति में हमें अमोहाहिं पडंतीहिं अमोघाभिः पतन्तीभिः
सुख नहीं मिल रहा है।" गिहंसि न रइं लभे।। गृहे न रतिं लभावहे।। २२.केण अब्माहओ लोगो? केनाभ्याहतो लोकः?
"पुत्रो! यह लोक किससे पीड़ित है? किससे घिरा केण वा परिवारिओ?| केन वा परिवारितः?। हुआ है ? अमोघा किसे कहा जाता है ? मैं जानने के का वा अमोहा वुत्ता ? | का वाऽमोघा उक्ताः? लिए चिन्तित हूं।"---पिता ने कहा।
जाया ! चिंतावरो हुमि।। जातौ ! चिन्तापरो भवामि।। २३. मच्चुणाऽब्माहओ लोगो मृत्युनाऽभ्याहतो लोकः कुमार बोले--- "पिता! आप जानें कि यह लोक मृत्यु जराए परिवारिओ। जरया परिवारितः।
से पीड़ित है, जरा से घिरा हुआ है और रात्रि को अमोहा रयणी वुत्ता अमोघा रात्रय उक्ताः
अमोघा कहा जाता है।" एवं ताय! वियाणह ।।
एवं तात ! विजानीहि।। २४.जा जा वच्चइ रयणी
या या व्रजति रजनी
“जो-जो रात बीत रही है, वह लौट कर नहीं न सा पडिनियत्तई। न सा प्रतिनिवर्तते।
आती। अधर्म करने वाले की रात्रियां निष्फल चली अहम्मं कुणमाणस्स अधर्म कुर्वाणस्य
जाती हैं।" अफला जंति राइओ।।
अफला यान्ति रात्रयः।। २५.जा जा वच्चइ रयणी या या व्रजति रजनी
“जो-जो रात रात बीत रही है वह लौट कर नहीं न सा पडिनियत्तई। न सा प्रतिनिवर्तते।
आती। धर्म करने वाले की रात्रियां सफल होती हैं।" धम्मं च कुणमाणस्स
धर्मं च कुर्वाणस्य सफला जंति राइओ।। सफला यान्ति रात्रयः ।।
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